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________________ ६४ डॉ. हरीश 'और कर्तव्य के साथ न्याय कर पाते और शायद तब स्थिति वह नहीं होती, जो आज है और हमारी यह निश्चित मान्यता है कि तब उनके हाथ से मिथिला के अमर कवि का इतना अहित भी नहीं होता । किमी के काव्य को शृंगारिक कहना और बात है (और उससे हमें कोई आपत्ति भी नहीं) पर उसे केवल ऊपरी दृष्टि से देखकर उनके काव्य को कामक्रीडा जन्य विलास की सामग्री प्रादि कहकर लांहि बात है। एक बात में मल्यांकन है और दूसरी बात में उसके प्रति किया गया लांछन है जिसे वस्तुतः किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता । प्रस्तुत निबंध में विद्यापति के सृजन की विभिन्न परिस्थितियों के अंतराल में जाकर विशिष्ट अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिसमें विद्यापति सम्बन्धी पूर्व मान्यताओं के प्रतिकूल अनेक तथ्य मिलेंगे। हिन्दी साहित्य की १३वीं तथा १४वीं शताब्दी की साहित्यिक, सामाजिक, धार्मिक और दार्शनिक पृष्ठ भूमि का अध्ययन कर यदि विद्वान पालोचक विद्यापति के काव्य का मूल्यांकन करते तो शायद उन्हें "घोर शृगारी" का खिताब न मिलता। हमारे विचार से विद्यापति एक भक्त कवि थे और शृगार उनका वर्ण्य विषय था और इस शृगार वर्णन के माध्यम से ही उन्होंने अपने अपने कतृत्व को भक्त के रूप में प्रस्तुत किया है। विद्वानों के परितोष के लिए हम अग्रांकित सारी सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। ___ महात्मा बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म महायान और हीनयान इन दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। हीनयान, हीन माना गया और महायान क्रमशः मंत्रयान, वाममार्ग एवं वज्रयान के रूप में परिवर्तित हो गया। इसी मंत्रयान के प्रसिद्ध प्राचार्य नागार्जुन थे और नागार्जुन के "शून्यवाद" का विकसित रूप "सहजयान" था। सिद्ध सिद्धान्तत: सहजयानी थे। इसमें जंत्रमंत्र, डाकिनी, पूराकिनी, अभिसार यक पूजा, पंच मकार आदि का विकास हुआ। भैरवी चक्र और मैथुन आदि भी इसमें शामिल थे। मैथुन छह प्रकार की सिद्धियों का दाता था। साधकों ने इसीलिए इसे महासूख नाम दिया। यही इसकी अंतिम अवस्था थी। बौद्ध-दर्शन के हीनयान के विकसित रूपों की परम्परा अबाध रूप से चल रही थी। तांत्रिकों की यह महासुख की भावना का सिद्धान्त बौद्धमत की निर्वाण की भावना से विकसित हुआ है । अब मैथुन के लिए स्त्री की आवश्यकता हुई, अतः उसका महत्व बढ़ा। इस महासुख का बड़ा रहस्यमय वर्णन मिलता है । यह मुद्रासाधना (स्त्री साधना) से मिलता जुलता है। ये मुद्राए-कर्ममुद्रा, महामुद्रा, धर्ममुद्रा तथा समयमुद्रा चार प्रकार की हैं । इन मुद्राओं से जो अानंद मिलता है, वह भी अानंद, परमानंद, विरमानंद और सहजानंद आदि चार प्रकार का है। इस प्रकार की स्त्री साधना ही इसमें प्रमुख थी। यद्यपि साहित्यिक सिद्धों ने बज्रयान से विमुख होकर स्त्री को व्यर्थ बताया पर स्त्री की भावना दबे रूप से पलती रही और इसीलिए संसार रूपी विष की मुक्ति के लिए स्त्री रूपी विष को परमावश्यकता बताई गई । “विषस्य विषमौषधम्" । इसलिए भोग में निर्वाण की भावना सिद्ध साहित्य में देखने को मिलती है। जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्तियों में विश्वास रखने के कारण ही सिद्धों का यह सम्प्रदाय "सहजयान" कहलाता है । इसी सहजयान की यह परंपरा साहित्य में आगे बढ़ी और साधना की इस धारा के इस सम्प्रदाय का प्रभाव वैष्णव धारा पर भी पड़ा। वैष्णव धारा के कवियों ने इस बौद्ध सहजयान को वैष्णवी रूप में प्रतिष्ठित किया। सहजयान के इस वैष्णवीकरण पर अभी तक विद्वानों ने विचार नहीं किया है। वैष्णव कवियों ने जो भी प्रेम गीत गाए हैं, उनमें ईश्वर के प्रति प्रेम या तो स्वकीया प्रेम का आदर्श लेकर चला या परकीया प्रेम का । पर सहजयान की स्त्री साधना दोनों में विद्यमान रही। .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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