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जैनधर्म और उसके सिद्धान्त
का प्रत्याख्यान करते रहे पर किसी न किसी रूप में सभी धर्म मानने वाले हिंसा को करते रहे और अपने प्रमाण में " वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" तथा यह धर्म की हिंसा है— कह कर अपने को बचाते रहे । किन्तु जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसने किसी भी रूप में हिंसा को मान्य नहीं स्वीकार किया और उसके विभिन्न स्तरों का सांगोपांग विवेचन किया। आज भी यह जाति अहिंसानिष्ठ एवं प्रचार-प्रधान देखी जाती है । यथार्थ में यह तप, त्याग एवं प्राचार - प्रधान संस्कृति है जो अनेक प्राधातों को सहकर भी आज ज्यों की त्यों स्थिर है ।
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जैनधर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है । यह शुद्ध रूप में ग्रात्मा को शुद्ध, बुद्ध तथा निरंजन मानता है । परन्तु अनेक जन्मों के कर्मों से आबद्ध होने के कारण आत्मा अशुद्ध एवं मैली होने से संसार के परावर्तनों में भटक रही है । यद्यपि इसमें अनंत शक्ति और गुण विद्यमान हैं और इतनी क्षमता है कि अपनी निर्वृत्तिप्रधान क्रिया से स्वयं मुक्त हो सकती है किन्तु कर्मों के तिमिर जाल में उलझी होने से मुक्त होने में समर्थ नहीं हो रही है। इसलिए कर्म बन्धन से मुक्त होने का नाम ही मुक्ति है । इसके लिए किसी परमात्मा के आने की आवश्यकता नहीं है कि वह अपने स्थान से नीचे उतर कर हमारी सहायता करने के लिए यहां आये, बल्कि आत्मा में वह परम शक्ति विद्यमान है कि वह "नर से नारायण", आत्मा से परमात्मा बन सकती है । यदि उसमें यह शक्ति विद्यमान नहीं है तो संसार की कोई ऐसी शक्ति नहीं हैं जो उसे ईश्वरत्व प्रदान कर सके। उसमें स्वयं शक्ति का वह प्रकाश है तभी तो वह अपनी ज्योति को ऊर्ध्वगामी बना सकता है। इसी रूप में जैनधर्म आत्मा को स्वीकार करता है । और यह तो सद्वाद का सिद्धान्त है कि जो विद्यमान है, जिसका अस्तित्व है वह कभी प्रभाव-रूप नहीं हो सकता और सद्भाव का कभी विनाश नहीं होता । इसलिए कर्म - बन्धनों को काटने का अर्थ है उनसे अलग हो जाना, जड़त्व को सर्वथा छोड़ कर श्रात्मा के यथार्थ को, पूर्ण चेतन रूप को प्राप्त कर लेना ।
हिंसा की भांति कर्मवाद और स्याद्वाद भी जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्त हैं । जैनधर्म के अनुसार कर्म एक स्वतन्त्र द्रव्य है । आत्मा के साथ मिल कर चलनशील होने पर यह विभिन्न भावों की सृष्टि करता है । यह अपनी क्रियाओं से जीव को संसक्त कर के रखता है और पूरी तरह से उस पर छा जाता है । इसलिए आत्मा के प्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है उसमें कार्माण वर्गणाओं का योग रहता है । अतएव पुनर्जन्म की प्रक्रिया कर्मों के अनुसार सम्पादित होती रहती है । गौतम बुद्ध भी कर्मानुसार पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं । कर्म अनन्त परमाणुओं का स्कन्ध कहा जाता है । यह समूचे लोक में व्याप्त रहता है । जिस प्रकार बीज के दग्ध हो जाने पर फिर वृक्ष उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार जन्म देने वाला कर्म संसार का बीज है और उसके प्रात्यन्तिक क्षय या दरध हो जाने पर फिर पुनर्जन्म नहीं होता । कर्म से ही आत्मा में विकृति उत्पन्न होती है । इस विकृति को दूर करने के लिए जिन शासन में ज्ञान, ध्यान और तप का श्राचरण मुख्य बतलाया गया है । तीर्थङ्कर महावीर ने भी अहिंसा की मुख्य प्रेरक शक्ति को संयम कहा है। संयम एक प्रान्तरिक साधना है जो भीतरी शुद्धि पर अधिक बल देती है। और संशुद्धि को प्रकट करती है ।
विज्ञान की भांति कर्म का भी अपना ज्ञान-विज्ञान है जिसके अनुसार यह कर्मस्कन्ध रूप ( परमाणु समूह ) होने पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता । परन्तु रज के सूक्ष्मतम कणों के समान सम्पूर्ण
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