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डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री
क्षात्रधर्म का दर्दा एवं तेज है। जैनों ने व्यवहार में ऐसी अहिंसा का सर्वथा विरोध किया है जो डर के मारे अपने या दूसरे के प्राण लेने का पाठ सिखाती हो। जैनधर्म के सभी तीर्थङ्कर क्षत्रिय एवं राजपुत्र थे। अधिकतर तीर्थकर इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए थे। अपने जीवन में उन्होंने कई युद्ध किए थे। चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्प्रति, खारवेल, अमोघवर्ष, चेटक, श्रेणिक, शिवकोटि तथा कलचुरि, गंग और राष्ट्रकूट वंश के अनेक राजा जैन थे। चन्द्रगुप्त, बिम्बसार, अजातशत्रु, उदयन, महापद्म, बिन्दुसार और अशोक को जैन तथा बौद्ध परम्पराए अपना मतावलम्बी मानते हैं। जो भी हो, इससे स्पष्ट है कि ज्ञात, अज्ञात न जाने कितने सम्राट और राजा हुए जिन्होंने युद्ध और अहिंसा का सफलता से संचालन किया था।
जैन शास्त्रों में हिंसा के संकल्पी, विरोधी, प्रारम्भी और उद्यमी-ये चार भेद किए गए हैं। ये हिंसा के स्थूल भेद हैं। इनका मूल है-प्रमाद पूर्वक कार्य न करना, सावधानी रखना ।३० और यही आगे चल कर द्रव्य रूप और भावरूप भेदों से हिंसा मूख्य रूप से दो कोटियों में विभक्त हो जाती है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भावपक्ष की मुख्यता को लेकर स्पष्ट रूप से कहा है कि जीव का घात हो या नहीं, यदि असावधानी से प्रवृत्ति की गई है तो निश्चय से वह हिंसा है और सावधानी से प्रवृत्ति करने वाले से यदि कदाचित् प्राणों का घात भी हो जाये तो उसे हिंसा के निमित्त का बन्ध नहीं होता।३१ वस्तुतः अच्छे और बुरे भावों पर जीवन की नींव टिकी हुई है। जीव को जैसा अन्न और जल मिलता है वैसा ही उसका निर्माण होता है। भाव और प्रवृति जीवन में अन्न और जल की भांति पोषक तत्व हैं जिनसे धर्म को संरचना होती है, धर्म का विग्रह जन्म लेता है।
अहिंसा का सभी धर्मों में महत्व वणित है। भारतीय संस्कृति तो मूलतः अहिंसानिष्ठ रही है । वाल्मीकि ने भी अपनी रामायण में अहिंसा का आचरण करने वाले मुनियों को पूज्य तथा श्रेष्ठ कहा है । ३२ वस्तुतः अहिंसा की उपस्कारक श्रमण-संस्कृति थी जिसने सूक्ष्म से सूक्ष्म अहिंसा का निरूपण एवं निर्वचन किया है और समस्त धर्म रूपों को अहिंसा की व्यापक व्याख्या में समाहित कर लिया। यदि हम विभिन्न संप्रदायों एवं धर्मों का इतिहास देखें तो स्पष्ट हो जायगा कि किसी न किसी रूप में सभी हिंसा
३० प्रमत्तयोगात्प्राण व्यपरोपरणं हिंसा । -तत्वार्थसूत्र, ७८ ३१ मरदु व जियदु ब जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा।
पयडस्स पत्थि बन्धो हिंसामत्तेण समिदस्स ।। प्रवचनसार, ३।१७ ३२ धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेतास्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः ।
अहिंसका वीतमलाश्च लोके भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः ॥ वाल्मीकि रामायण, १०६।३ तथा
अहिंसासत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । एतत् सामासिकं धर्म चातुर्वर्ण्य ब्रवीन्मनुः ।। यन्नूनमश्यां गति मित्रस्य यायां पथा । अस्य प्रियस्य शर्मण्यहिंसानस्य सश्चिरे ।। ऋग्वेद, ५।६४।३
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