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________________ ‘પૂજ્ય ગુરુદેવ કવિલય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ सत्यांश है। ऐसा समझकर दृष्टि को निर्मल, विवारों को उदार और दिल को विशाल बनाना चाहिये । हमारे संविधान में धर्म निरपेक्षता का जो तत्त्व समाविष्ट हुआ है वह इसी वैचारिक सापेक्ष चिन्तन का परिणाम प्रतीत होता है। - कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि महावीर का स्वातंत्र्य बोध यद्यपि आत्मवादी चिन्तन पर आधारित है पर वह जीवन के सभी पक्षों-आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि को सतेज और प्रभावी बनाता है। स्वतंत्रता के २८ वर्षों बाद भी हम विभिन्न स्तरों पर स्वतंत्रता की सही अनुभूति नहीं कर पा रहे हैं। इसका मूलकारण स्वतंत्रता को अधिकार प्राप्ति तक ही सीमित रखकर समझना है। पर वस्तुतः स्वतंत्रता मात्र अधिकार नहीं है। वह एक ऐसा भाव है, जो व्यक्ति को अपने सर्वांगीण विकास के लिये उचित अवसर, साधन और कर्म करने की शक्ति प्रदान करता है। यह भाव अपने कर्तव्य के प्रति सजग और सक्रिय बने रहने से ही प्राप्त किया जा सकता है । परन्तु दुःख इस बात का है कि आज हम अपना कर्तव्य किये बिना ही अधिकार का सुख भोगना चाहते हैं। इसीका परिणाम है - आज का यह संत्रास, यह संकट । इस संत्रास और संकट से निपटने के लिये हमें बाहर नहीं. भीतर की ओर देखना होगा। बाहर से हम भले ही स्वतंत्र और स्वाधीन लगें पर भीतर से हम छोटे-छोटे स्वार्थो, संकीर्णताओं और अंधविश्वासों से जकड़े हुए हैं। शरीर से हम स्वतंत्र लगते हैं पर हमारा मन स्वाधीन नहीं है । जबतक मन स्वाधीन नहीं होता, व्यक्ति की कर्मशक्ति सही माने में जागृत नहीं होती और वह अपने कर्तव्य पथ पर निष्ठापूर्वक बढ़ नहीं पाता। मन की स्वाधीनता के लिये आवश्यक है - विषय विकारों पर विजय पाना और यह तब तक संभव नहीं जब जब तक कि व्यक्ति आत्मोन्मखी न बने। आज की हमारी सारी कार्य प्रणाली का केन्द्र कर्तव्य न होकर, अधिकार बना हुआ है। शक्ति का स्रोत सेवा न होकर, सत्ता है। प्रतिष्ठा का आधार गुग न होकर, पैसा और परिग्रह है। जब तक यह व्यवस्था रहेगी तब तक हम स्वतंत्रता का सही आस्वादन नहीं कर सकते। हमें इस व्यवस्था को बदलना होगा और इसके लिये चाहिए, तप, त्याग, बलिदान, कर्तव्य के प्रति अगाध निष्ठा और आत्मोन्मुखी दृष्टि । * काव्याञ्जली श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री, साहित्यरत्न परम पावन जीवन आपका, प्रखर थी किरणें गुणराशि की। यदपि भानु समान विकास था, तदपि जीवन शीतल केन्द्र था ।१॥ अचलता गिरिराज समान थी, अतिगंभीर अथाह समुद्र से। वितत थी धरणी सम धीरता, गगन के सम व्यापक रूप था ।२। विशद भावभरी वचनावली, अमृतधार समा बहती सदा। कर गयी वह पूत जनस्थली, उपज थी जिस से जिनधर्म की ।३। विविध अन्चल भारत देश का, विषद प्रान्त रहा गुजरात है। कवि शिरोमणि नानमुनीन्द्र के, सुयश सौरभ से महका स्वयं । ४ । जनम के शत वर्ष हुए अभी, अखिल मानव जाति प्रसन्न है। इस महोत्सव से अनुरक्त हो, यह समर्पित है कुसुमाञ्जली ॥५॥ तत्त्वदर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012031
Book TitleNanchandji Maharaj Janma Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChunilalmuni
PublisherVardhaman Sthanakwasi Jain Shravak Sangh Matunga Mumbai
Publication Year
Total Pages856
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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