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________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ વિવા` પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ उसे अन्धा बना देती है और श्रध्धा विहीन ज्ञान मनुष्य को संशय और तर्क के मरुस्थल में भटका देता है । इस मानवीय प्रकृति का विश्लेषण करते हुए विसुध्दिमग्ग में कहा गया है कि बलवान श्रध्धा वाला किन्तु मन्द प्रज्ञा वाला व्यक्ति विना सोचे समझे हर कहीं विश्वास कर लेता है और बलवान प्रज्ञा किन्तु मन्द श्रध्धावाला व्यक्ति कुतार्किक ( धूर्त) हो जाता है । वह औषधि से उत्पन्न होने वाले रोग के समान ही असाध्य होता है । इस प्रकार बुध्ध श्रध्धा और विवेक के मध्य एक समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। जहां तक गीता का प्रश्न है निश्चय ही उसमें ज्ञान की अपेक्षा श्रध्धा की ही प्राथमिकता सिध्ध होती है क्योंकि गीता में श्रध्धेय को इतना समर्थ माना गया है कि वह अपने उपासक के हृदय में ज्ञान की आभा को प्रकाशित कर सकता है । सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र का पूर्वापर संबंध चरित्र और ज्ञान दर्शन के संबंध की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में चारित्र से दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है । कि सम्यक् दर्शन के अभाव में सभ्यक् चरित्र नहीं होता । भक्त परिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट ( पतित ) ही वास्तविक रूप में भ्रष्ट है, चरित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं हैं क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होता है । कदाचित् चरित्र से रहित सिद्ध भी हो जावे लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता । ६ वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्व है जो व्यक्ति के ज्ञान और आचरण को सही दिशा निर्देश कर सकता है । मध्ययुग के जैन आचार्य भद्रबाहु आचारांग नियुक्ति में कहते हैं कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं । २७ आध्यात्मिक संत आनन्दघनजी दर्शन की महत्ता को सिद्ध करते हुए अनन्त जिन स्तवन में कहते हैं कि शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, छार पर लीपणुं तेह जाणोरे । सभ्यक् ज्ञान और सभ्यक् चरित्र की पूर्वापरता जहां तक ज्ञान और चरित्र का संबंध है जैन विचारकोंने चरित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है । दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो जीव और अजीव के स्वरूप को नहीं जानता, ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या धर्म (संयम) का आचरण करेगा ? उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बताया गया है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता । इस प्रकार जैनदर्शनमें आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना आवश्यक है फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते है कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन हो सकता है । यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ज्ञान की चरित्र से पूर्वता को सिद्ध करते हुए एक चरम सीमा का स्पर्श कर लेते हैं । वे अपनी समयसार टीका में लिखते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है क्योंकि ज्ञान के अभाव होने से अज्ञानियों में अन्तरंग व्रत, नियम, सदाचरण, और तपस्या आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है । क्योंकि अज्ञान ही बन्ध का हेतु है । इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र बहुत कुछ रूप में ज्ञान को प्रमुख मान लेते हैं। उनका यह दृष्टिकोण जैनदर्शन को शंकराचार्य के निकट खड़ा कर देता है । फिर भी यह मानना कि जैन दृष्टि में ज्ञान हो मात्र मुक्ति का साधन है, जैन विचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है । साधना मार्ग में ज्ञान और क्रिया के श्रेष्ठत्व को लेकर आज तक विवाद चला आ रहा है किन्तु महावीर ने ज्ञान और आचरण से दोनों से समन्वित साधना पथ का उपदेश दिया है । सूत्रकृतांग में महावीर कहते हैं कि मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक शास्त्रों का जानकार हो, यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कृत्य कर्मों के कारण दुःखी ही होगा " । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता । दूराचरण में अनुरक्त अपने आप को पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही है । वे केवल वचनों से ही अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं । आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और आचरण के पारस्परिक संबंध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से किया गया है । आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि आचरण विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता मी संसार समुद्र से पार नहीं होते । ज्ञान और क्रिया के ख ३७० Jain Education International For Private Personal Use Only तत्त्वदर्शन www.jainelibrary.org
SR No.012031
Book TitleNanchandji Maharaj Janma Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChunilalmuni
PublisherVardhaman Sthanakwasi Jain Shravak Sangh Matunga Mumbai
Publication Year
Total Pages856
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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