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________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવર્યાં પં. નાનચન્દ્રેજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ १३ सयोगि केवली गुणस्थान : बारहवें गुणस्थान के अन्त में सब घनवाति कर्मों का एक साथ क्षय होते ही जीव विश्व के समस्त चराचर तत्त्वों को हस्तामलकवत् स्पष्ट देखने जानने लगता है । वह सर्वज्ञ - सर्वदर्शी बन जाता है। वह परमात्मभाव का पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर सच्चिदानन्द स्वरूप को व्यक्त कर लेता है । जैसे पूर्णिमा की रात्रि में आकाश में चन्द्र की सम्पूर्ण कलाएं प्रकाशमान होती है वैसे ही इस अवस्था में आत्मा की चेतना आदि सभी मुख्य शक्तियां पूर्ण विकसित हो जाती है । १४ अयोगि केवली गुणस्थान : तेहरवे गुणस्थान में चार अघाति कर्म दग्ध रज्जु के समान शेष रह जाते हैं । इनको भी इस गुणस्थान में नष्ट कर दिया जाता । शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति यहां प्रकट होता है और उसके द्वारा मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों का सर्वथा निरोध हो जाता है। योग निरोध के कारण आत्मा अयोगी हो जाता है । समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा सुमेरू की तरह निष्कंप स्थिति को प्राप्त करके आत्मा शाश्वत मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । वह सर्वथा शुद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर लोकोत्तर स्थान - सिद्धालय को प्राप्त कर लेता है । यही सम्पूर्णता है, कृतकृत्यता है और सर्वोत्तम सिद्धि है । उपसंहार ऊपर जिन चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया गया है उनका तथा उनके अन्तर्गत संख्यातीत अवस्थाओं का बहुत ही संक्षेप में वर्गीकरण करते हुए शास्त्रकरों ने आत्मा की तीन अवस्थाएं बतलाई है - १ बहिरात्म अवस्था २ अन्तरात्म अवस्था और ३ परमात्म अवस्था । प्रथम अवस्था में आत्मा का ज्ञान-प्रकाश अत्यन्त आच्छन्न रहता है जिसके कारण वह पोद्गलिक विषयों को ही सर्वस्व समझता रहता है। उन्हीं को पाने के लिए प्रयत्नशील रहता है। प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थान बहिरात्म दशा का चित्रण है । दूसरी अवस्था में आत्मा की दृष्टि बदल जाती । वह पौद्गलिक विलासों से हटकर शुद्ध स्वरूप की ओर लग जाती है। चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक अन्तरात्म अवस्था का दिग्दर्शन है । तीसरी अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है। उसके आवरण छिन्नभिन्न हो जाते हैं। तेरहवां और चौदहवां गुणस्थान परमात्म अवस्था का वर्णन है । इस प्रकार बहिरात्मा से परमात्मा बनने के लिये समस्त भव्य आत्माओं को प्रयत्नशील होना चाहिए । आत्मविकास के इन सोपानों पर उत्तरोत्तर आरोहण करते हुए हम सब मुक्ति-सौध मे पहुंच कर अनन्तसुख का अनुभव करें यही कामना और भावना है। : सिद्धा सिद्धि मे दिसन्तु : आत्मिक उत्क्रान्ति के सोपान Jain Education International For Private Personal Use Only ३६१ www.jaihelibrary.org
SR No.012031
Book TitleNanchandji Maharaj Janma Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChunilalmuni
PublisherVardhaman Sthanakwasi Jain Shravak Sangh Matunga Mumbai
Publication Year
Total Pages856
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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