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________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવ` પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ किसी पथ पर चलने का साहस ही नहीं करेगा और अगर चल दिया तो उसके कदम दृढ़ नहीं हो सकेंगे । अर्थात् अविश्वास की आंधी के कारण वह डगमगाता रहेगा । इसीलिए संसार के सभी धर्म और धर्मग्रन्थ श्रद्धापर वल देते हैं । गीता में स्पष्ट कहा हैश्रद्धामयोऽयं पुरुषः, यो यच्छुद्धः स एव सः । यह आत्मा श्रद्धा का ही पुतला है । जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही वन जाता है । सिक्ख धर्म कहता है निश्चल निश्चय नित चित जिनके । वाहि गुरु सुखदायक तिन के ॥ वे ही मनुष्य सुख की प्राप्ति कर सकते हैं, जिनके हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण है । ईसाई धर्म भी यही मानता है । A doubt minded man is unstable all his ways. एक श्रद्धाहीन मानव अपने समस्त कृत्यों में चलायमान रहता हैं । उसके दिल या दिमाग, किसी में भी स्थिरता नहीं होती । हमारे जैन शास्त्र तो श्रद्धा को धर्म का मूल मानते है । वे कहते हैं सद्धा परम दुल्लहा । श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है । जिसने अतिशय पुण्यों कः उपार्जन किया हो, अर्थात् जो अतीव सौभाग्यशाली हो और जिसने पूर्व में अत्यधिक साधना की हो उसी को श्रद्धा की प्राप्ति होती है । उसकी श्रद्धा इतनी दृढ़ होती है कि भयंकर से भयंकर आपत्तियाँ और शारीरिक कष्ट भी उन्हें अपनी साधना से विचलित नहीं कर पाते । कहा जाता है कि एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस के गले में नासूर हो गया। बहुत इलाज करवाने पर भी वह ठीक नहीं हो रहा था । इसी बीच उनके एक भक्त ने आकर कहा- अगर आप मन को एकाग्र करके निरन्तर कहते रहें, रोग चला जा रोग चला जा । तो निश्चय ही आपका रोग जड़ से चला जाएगा। रामकृष्ण परमहंस बोले- " जो मन मुझे सच्चिदानन्दमयी मां का स्मरण करने के लिए मिला है, उसे इस हाड़-मांस के पिंजरे में लगाऊं ? " तब शिष्य ने आग्रह किया -- “अच्छा तो आप मां से ही प्रार्थना करे कि वह आपके रोग को नष्ट कर दे ।" श्रद्धावान रामकृष्ण ने उत्तर दिया- "मां सर्वज्ञ है और दयालु है । मेरे कल्याण के लिये उन्हें जो टीक लगता है वे कर ही रही है । फिर उनकी व्यवस्था में मैं क्यों गड़बड़ करूं? यह छिछोरापन तो मुझसे नहीं हो सकेगा ।" उपासक दशांग सूत्र में भी कामदेव श्रावक का वर्णन आया है । उसकी श्रद्धा कितनी प्रगाढ़ थी ? देवता ने उसे अपने धर्म से विचलित करने के लिए क्या नहीं किया? नाना प्रकार की भयंकर धमकियाँ दी और उन्हें कार्य रूप में परिणत भी किया, किन्तु कामदेव अपने सत्पथ या धर्म पथ से रंचमात्र भी च्युत नहीं हुआ। अगर उसके हृदय में दृढ़ श्रद्धा का वास न होता तो वह अपने मार्ग से विचलित हो जाता । श्रद्धा ने ही उसके चित्त में अजय शक्ति और साहस का आविर्भाव किया। किसी ने सत्य कहा है ३५० Jain Education International श्रद्धया साध्यते धर्मो, यद्भिनार्थराशिभिः । अकिञ्चना हि मुनयः, श्रद्धावन्ता दिवंगताः ॥ महान पुरुष अपनी अटल श्रद्धा के बल पर ही धर्म की आराधना करते हैं । श्रद्धा के अलावा संसार की अन्य अमूल्य वस्तु या अपार धनराशि भी धर्म - साधना में सहायक नहीं बनती। अगर ऐसा होता तो बड़े-बड़े राजा और चक्रवर्ती ही अपने वैभव का त्याग क्यों करते ? धन के द्वारा धर्म का क्रय-विक्रय नहीं हो सकता । मुनिजनों के पास कौन सा धन होता है ? वे तो एक पाई भी अपने पास नहीं रखते । अपनी समस्त भौतिक सम्पदा का त्याग करके ही मुनि बनते हैं तथा अकिंचनता को अपनाते हैं । केवल अपनी श्रद्धा के द्वारा ही आत्म-साधना करके स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति करते हैं । For Private Personal Use Only तत्त्वदर्शन www.jainelibrary.org
SR No.012031
Book TitleNanchandji Maharaj Janma Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChunilalmuni
PublisherVardhaman Sthanakwasi Jain Shravak Sangh Matunga Mumbai
Publication Year
Total Pages856
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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