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मंगेश रांका, XI.C
आदि गुणों को समेट लेता है। हमारे ज्ञान, कर्म और शक्ति तीनों ही उपासना-पथ इसका जयघोष करते सुने जाते हैं। सदैव सदाचार करना, हिंसा न करना, सत्यवादी होना आदि बातें इसके लिए अपेक्षित हैं। जीवन में संयम और नियम पालन भारतीय संस्कृति की विशेषता है। इसके लिए त्याग की आवश्यकता है। राम का राजत्याग और बापू का सर्वस्व त्याग विश्व संस्कृति की अमर प्रकाश किरणें हैं। दर्शन के अतिरिक्त भाषा, साहित्य और कला की दृष्टि से भारतीय संस्कृति का अपना विशिष्ट महत्व है। भारतीय कला और साहित्य भारतीय संस्कृति का गौरव है। अजन्ता तथा एलोरा की चित्रकला विश्व के कलाकारों की साधना का विषय बनी है। खजुराहो के मन्दिर, दक्षिण भारत के अनेक मठ, प्रणय का साकार स्वरूप ताजमहल इसके प्रमाण हैं परन्तु आजादी के बाद हमारी भारतीय संस्कृति में कमी और दरारें पड़ने लगी हैं। इस दरार और कमी का कारण बढ़ती हुई पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति है। अंग्रेजों के भारत आगमन ने प्रथम तो भारतीयों को प्रभावित किया और फिर हमारे देश को पाश्चात्य प्रभाव से पूरा ढक दिया और अब तो हम उनकी संस्कृति, सभ्यता, भाषा, वेषभूषा, खान-पान तथा शिक्षा को अपनाने में श्रेय समझते हैं। अपनी भारतीयता का हमारे लिए कोई अस्तित्व ही जैसे नहीं रहा।
भौतिकवाद की चकाचौंध ने हमारे आत्मवाद को खो दिया है। आज हम एक अन्धे की तरह इस संस्कृति को अपनाते चले जा रहे हैं। विदेशी यहां अध्यात्म विद्या की शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे। फिर विदेशी धन अपहरण के उद्देश्य से यहां आते थे और अपार धनराशि लेकर चले जाते, फिर भी यह कुबेरपुरी मणि-ज्योति की तरह जगमगाती रहती थी। परन्तु आज यह सब कल्पना लगता है। हमने स्वयं अपनी सम्पति को लुटाकर भीख मांगने में ही गौरव समझा है। हमने स्वयं अपने हाथों से पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। हम देश द्रोही हैं, आत्महंता हैं। पहले के जमाने में एक का सुख-दुख सबका सुख-दुख होता था। एक का अपमान होता था तब हम सब प्राणों को हथेली पर लेकर आत्मसम्मान की रक्षा के लिए दौड़ पड़ते थे पर आज सब मतलबी और स्वार्थी हो गए हैं। यह हमारी सभ्यता और संस्कृति के खिलाफ
भारतीय संस्कृति संकट की ओर
"संस्कृति" शब्द जब हमारे कानों तक पहुंचता है तब हमारा काल्पनिक दिमाग हजारों वर्ष पूर्व चला जाता है और हमारे देश की संस्कृति को देखकर नतमस्तक हो जाता है। मानव मस्तिष्क जीवन में सदैव नये साधनों की सहायता से गतिशील रहा है। इतिहास इस बात का गवाह है कि किस प्रकार उसने प्रकृति के उलझे हुए वातावरण में अपना एक स्थाई स्थान बनाया है। जब मानव को अपने अस्तित्व का ज्ञान हुआ तब उसने धर्म, शिष्टाचार और कला का क्षेत्र चुना। रोम और यूनान की संस्कृति की तरह हमारे देश की संस्कृति का नाम अमर है। संस्कृति ही एक उन्नत देश का मेरुदण्ड है जिसके बिना किसी भी देश का अस्तित्व टिक नहीं सकता। संस्कृति का एक अलग महत्व है जिसके बल पर एक देश गर्व से अपना सर उठा सकता हैं। भारत अपनी सभ्यता
और संस्कृति के लिए हमेशा से प्रसिद्ध रहा है। भारतीय लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति के लिए विश्व भर में जाने जाते हैं। इस दैव संस्कृति के समक्ष विश्व की आत्मा सदैव झुकी रही है। इसी संस्कृति के अमर नायक राम, कृष्ण और बापू के चरित्र भूतल पर अनुकरण के विषय बने हैं। यों तो विभिन्न राष्ट्रों की अपनी संस्कृति है फिर भी एक ऐसी अदृश्य ताकत है जो समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोये रखती है और यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है। युगों के पश्चात् भी भारतीय संस्कृति सबसे पृथक दिखाई पड़ती है।
भारतीय जीवन की प्रमुख धूरी धर्म है जो अपने व्यापक अर्थ में सांसारिक आचार-विचार, ज्ञान-पिपासा, गुण-ग्राहिता और सत्यानुसरण
यहां अंग्रेज लूटपाट की दृष्टि से आये लेकिन अपनी राजनीतिक कुशलता से शासक बन बैठे। जो लोग उनके अनुकूल स्वयं को ढाल सके उन्हें नौकरियां मिलीं और स्वदेश के आत्मसम्मान के लिए प्राणों की बलि चढ़ाने के लिए तैयार थे उन्हें नारकीय यातना सहन करने के लिए विवश किया गया। फलस्वरूप देश की अधिकांश जनता पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता की अंधभक्त हो गई। अंग्रेजी शासन के आगे भारतीयों को झुकना पड़ा। देववाणी संस्कृत का स्थान अंग्रेजी लेने लगी और पारस्परिक स्नेह सहानुभूति के स्थान पर द्वेष, पाखण्ड, छल, कपट आदि स्थापित हो गये हैं। आज भारतीय जीवन का कण-कण इन पाश्चात्य प्रभावों से ओतप्रोत है। जीवन में धर्म नाम की कोई वस्तु ही नहीं रह
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्यार्थी खण्ड / १२
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