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से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। वही (सूक्ष्मत्व) की पराकाष्ठा (सीमा) है, और वही सर्वोत्कृष्ट गति है। इस प्रकार इन पर विचार करते हुए इस आत्मा को सूक्ष्म-बुद्धि द्वारा ही ग्रहण करने का निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये। इसके उपरान्त उन्होंने कहा कि यद्यपि परमात्मा सभी प्राणियों के हृदयों में विराजमान हैं, किन्तु माया के अथवा अज्ञान के पर्दे में छिपे रहने के कारण सबको प्रत्यक्ष नहीं होता। उसे प्रत्यक्ष करने अथवा उसके दर्शन प्राप्त करने के लिए विवेकशील पुरुष जो साधन अपनाते हैं, उसी ध्यान अथवा लय-प्रणाली पर प्रकाश डालते हुए कहते
प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार साधक यज्ञादि शुभकर्मों द्वारा अपर ब्रह्म को तथा ज्ञान द्वारा परब्रह्म को जानने में समर्थ होता है। जीव की मुक्ति के लिए जितने पथ हैं, उनमें ज्ञान ही सर्व प्रधान है।
जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप का निर्णय करके यमराज ने परमात्मा की प्राप्ति के साधनों को बतलाने के लिए आत्मा का रथी और शरीर का रथ के रूप में चित्रण करते हुए कहा------ आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धि तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रह मेव च।। इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयास्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रिय मनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।
'शरीर रथ है, आत्मा रथ का स्वामी रथी है, बुद्धि सारथी है और मन लगाम है, इन्द्रियां घोड़े हैं, शब्द-स्पर्शादि विषय ही इनके दौड़ने के मार्ग हैं और शरीर, इन्द्रिय तथा मन से युक्त जीवात्मा को भोक्ता कहते हैं।' ___ 'घोड़ों से ही रथ चलता है। हाथों में लगाम पकड़े हुए बुद्धिमान सारथी ही रथ को जिधर चाहता है ले जाता है। इन्द्रिय रूपी बलवान
और प्रमथनकारी घोड़े विषयरूपी मार्ग पर मनमाना दौड़ना चाहते हैं। यदि बुद्धि रूपी सारथी सावधान होकर मनरूपी लगाम को पकड़े हुए है तो घोड़ों की ताकत नहीं कि वे इधर-उधर जा सकें। परन्तु इसके विपरीत यदि बुद्धि रूपी सारथी विवेक पूर्ण स्वामी का आज्ञाकारी, लक्ष्य पर हमेशा स्थिर रहने वाला, शक्तिशाली और इन्द्रिय रूपी अश्वों की संचालन-क्रिया में कुशल नहीं होता तो इन्द्रिय रूपी दुष्ट घोड़े उसके वश में न रहकर लगाम को अपने वश में कर लेते हैं। परिणाम स्वरूप रथ और रथी को किसी भी बुरे स्थान में पटक देते हैं। अत: जिसकी बुद्धि में विवेक है, जिसका मन एकाग्र और समाहित है, उसकी इन्द्रियां अच्छे घोड़ों की तरह बुद्धि रूप सारथी के वश में रहती हैं। ऐसा साधक जो विवेकवान होता है, जिसका मन निगृहीत है, जो सदा पवित्र रहता है वह ऐसे परम पद को प्राप्त होता है, जहां से उसे लौटकर पुन: जन्म ग्रहण नहीं करना पड़ता। वह अपने इसी रथ की सहायता से संसार-सागर के उस पार पहुंच कर सर्वव्यापी परब्रह्म परमेश्वर के उस सुप्रसिद्ध परम पद को प्राप्त हो जाता है, जिसे- 'तद् विष्णोः परं पदम्'– विष्णु का परम पद कहा जाता है।' इस परम पद की प्राप्ति के लिए किस प्रकार स्थूल इन्द्रियों से शुरू करके सूक्ष्मता के तारतम्य-क्रम से प्रत्यगात्म-स्वरूप से ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, उसके विषय में बतलाते हुए यमराज कहते हैं'इन्द्रियेभ्य: पराह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।। महत: परम व्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः । पुरुषान्न परम किंचित्सा काष्ठा सा परागतिः ।। ___ 'इन्द्रियों से उनके विषय श्रेष्ठ हैं, विषयों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धि से भी महान् आत्मा उत्कृष्ट है। महतत्व से अव्यक्त (मूल प्रकृति) श्रेष्ठ है और अव्यक्त से भी पुरुष श्रेष्ठ है। पुरुष
यच्छेदाङमनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि। ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेतद्यच्छान्त आत्मनि ।।
'विवेकी पुरुष वाक्-इन्द्रिय को मन में, मन को ज्ञान अर्थात् प्रकाश स्वरूप बुद्धि में, ज्ञान-स्वरूप बुद्धि को महतत्व में और महतत्व को शान्त आत्मा में नियुक्त करें। ध्यान तथा समाधि का यही अभ्यास क्रम है। संकल्प वाणी के रूप में ही प्रकट होता है। इसी कारण वाक्य (वाणी) का मूल है प्राण शक्ति। उस प्राण-शक्ति को प्राणायाम के द्वारा स्थिर कर सकने से मन के नाना प्रकार के संकल्प मन में ही विलीन हो जाते हैं। संकल्प-विकल्प-रहित हो जाने पर मन एकाग्र हो जाता है। यही है मन को ज्ञानात्मा में ले जाना। धैर्यपूर्वक साधनाभ्यास करते रहने से प्राण स्पन्दन-रहित हो जाता है। इससे चित्त में भी स्पन्दन नहीं रह जाता। किन्तु वासना का बीज तब भी सुप्तावस्था में रह जाता है, पर सिर नहीं उठा पाता। इसी को महत् आत्मा अर्थात् बुद्धि का अतिसूक्ष्म भाव कहते हैं। बुद्धि की इसी सूक्ष्मावस्था में आत्मा का स्पर्श अनुभूत होता है। उस समय भी सविकल्प का भाव रहता है। पश्चात् उस स्पर्श का जब पुन: विराम नहीं रहता तब संस्कार के बीज का भी नाश हो जाता है, वही शान्त आत्मा या निर्विकल्प समाधि की स्थिति है।' (भूपेन्द्र नाथ सान्याल कृत भगवद्गीता - भाष्य से उद्धृत)। ___ इस पद्धति-विशेष से आत्म-ज्ञान की उपलब्धि कर पुरुष स्वस्थ, प्रशान्त चित्त एवं कृत-कृत्य हो जाता है। इसीलिए उस आत्मा के साक्षात्कार हेतु उबुद्ध करते हुये यमराज कहते हैं
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। ___ 'उठो, जगो और महापुरुषों के पास जाकर इसे जानो। क्योंकि बुद्धिमान लोग इस मार्ग को- क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥' तलवार की धार पर चलने के समान बतलाते हैं।
पहले यह कहा जा चुका है कि सम्पूर्ण प्राणियों की बुद्धि रूपी गुहा में अवस्थित यह आत्मा अत्यन्त कठिनता से दिखलाई पड़ता है। प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों होता है ? इसका उत्तर देते हुए यमराज कहते
पराञ्चिरवानि व्यतृणंत्स्वयं भू स्वस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष दावृत्त चक्षुर मृतत्व मिच्छन । 'इन्द्रियों के मुख बाहर की ओर हैं, इसी से वे केवल बाहर की
हीरक जयन्ती स्मारिका
अध्यापक खण्ड /२२
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