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किसी महापुरुष के संग से ही उपलब्ध होती है। उस महापुरुष द्वारा आत्म-तत्व के विवेचन को श्रवण करते हुए, उसी का चिन्तन करने का अभ्यास करते रहना चाहिए। इसके उपरांत यमराज ने अपना उदाहरण देते हुए बतलाया कि उन्होंने यह जानते हुए भी नचिकेताग्नि का चयन किया कि अनित्य साधनों द्वारा नित्य पदार्थ की प्राप्ति नहीं की जा सकती, किन्तु उन्होंने नचिकेताग्नि आदिरूप से जो कुछ यज्ञ आदि कर्म किये, सबके सब कामनाओं और आसक्ति-भाव से रहित होकर केवल लोक-कल्याण के लिए कर्त्तव्य-बुद्धि से प्रेरित होकर किए। इस निष्काम भाव की ही यह महिमा है कि अनित्य पदार्थों के द्वारा कर्त्तव्य-पालन रूप ईश्वर-पूजा करके मैंने नित्य-सुख रूप परमात्मा की प्राप्ति कर ली। तदुपरांत उन्होंने नचिकेता की बुद्धि, उसके त्याग तथा निष्काम भाव की प्रशंसा करके उसे आत्म-तत्व का अधिकारी बताया। आगे उन्होंने उसके हृदय में ईश्वर प्राप्ति की तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न करने हेतु परमात्मा की महिमा का वर्णन करते हुए कहातं दुर्दशं गूढम अनुप्रविष्टं, गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्। अध्यात्म योगाधिगमेन देवं, मत्वा धीरो हर्ष-शोको जहाति।। __ 'उस कठिनता से दिखाई देने वाले, गूढ स्थान में अनुप्रविष्ट (विषय-विकार रूप विज्ञान से छिपे हुए), बुद्धि में स्थित, गहन स्थान में रहने वाले पुरातन देव को अध्यात्म योग (चित्त को विषयों से हटाकर आत्मा में लगा देना) की प्राप्ति द्वारा जान कर धीर (बुद्धिमान) पुरुष हर्ष और शोक का परित्याग कर देता है।'
'इस आत्म-तत्व विषयक उपदेश को अनुभवी महापुरुष (सत्गुरु) द्वारा श्रद्धा-पूर्वक सुनना चाहिये, सुनकर उसका मनन करना चाहिये। उसके बाद एकान्त में उस पर विचार करते हुये, उसे बुद्धि में धारण करना चाहिये। इस प्रकार निरन्तर साधन-रत रहने पर जब साधक को आत्म-तत्व की प्राप्ति हो जाती है, तब वह आनन्द-रूप ही हो जाता है। नचिकेता के लिये भी वह मोक्ष का द्वारा खुला हुआ है।' ___ यमराज के मुख से परब्रह्म परमात्मा की महिमा सुनकर और अपने को आत्म-ज्ञान का अधिकारी समझकर नचिकेता ने कहा- 'भगवन ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो धर्म और अधर्म से परे, कार्य और कारण रूप प्रपञ्च से पृथक् और भूत तथा भविष्य से भिन्न जिन सभी प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत परमात्मा को आप देखते हैं, उसे बतलाइये।'
नचिकेता के प्रश्न को सुनकर यमराज ने आत्मा के स्वरूप तथा उसके लक्षणों को बतलाने से पूर्व उसके साक्षात् साधन प्रणव का उपदेश प्रारम्भ किया। उन्होंने कहा
'सभी वेद जिसका प्रतिपादन करते हैं, जिसको प्राप्त करने हेतु सभी प्रकार के तप किये जाते हैं तथा जिसके साक्षात्कार के लिये ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। संक्षेप में उस पद को 'ॐ' कहते हैं।' अत: 'यह अक्षर ही अपर ब्रह्म है और यही पर ब्रह्म है। यही सभी नामों में व्याप्त है। परमात्मा के समस्त नामों में 'ॐ' ही सर्वश्रेष्ठ है। यही ब्रह्म का प्रतीक है। इसको ‘यही उपास्य ब्रह्म है' ऐसा जानकर
जो पर अथवा अपर जिस ब्रह्म को प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसे वही प्राप्त हो जाता है। यही ॐकार रूप आलम्बन (सहारा, साधन)- गायत्री आदि- सभी आलम्बनों में श्रेष्ठ है यानी सबसे अधिक प्रशंसनीय है। जो साधक इसे जान जाता है, वह परब्रह्म में स्थित होकर महिमान्वित होता है।'
नोट : यद्यपि प्रणव-उपासना कई प्रकार से की जाती है, किन्तु इनमें एक अत्यन्त सरल विधि है, जिसका अवलम्बन कोई भी मनुष्य ग्रहण कर सकता है। प्राण देने वाली वस्तु अथवा जीवन-दाता पदार्थ को प्रणव कहते हैं। शरीर में इसका अनुभव ध्वनि के रूप में होता है। इसी ध्वनि को अनाहत भी कहते हैं। इसकी उत्पत्ति हृदय के समीप अनाहत चक्र से होती है। अत: एकान्त में किसी आसन पर सीधे बैठकर, बिना हिले-डुले साधना शुरू करनी चाहिये। साधना-स्थल एकान्त में तो होना ही चाहिये, वहां कोई बाहरी आवाज नहीं सुनाई पड़नी चाहिये। दिन में ऐसी सुविधा यदि न मिले तो रात में सबके सो जाने पर अभ्यास करना चाहिये। यह आवश्यक नहीं है कि भूमि या चौकी पर ही बैठकर साधन किया जाय। इसे चारपाई पर बैठकर भी किया जा सकता है। शरीर और वस्त्र शुद्ध होने चाहिये। कानों में अंगुली डालने की भी जरूरत नहीं है। गहरा ध्यान लगाने से ही काम चल जाता है। वृत्ति को अन्तर्मुखी करके, सभी ओर से चित्त को हटाकर हृदय-स्थल पर होने वाली धड़कन की ध्वनि (अथवा धक्के के स्वर) को सुनने की कोशिश करनी चाहिये। पूरे ध्यान (एकाग्रता) केसाथ इस प्रकार सुनना चाहिये जैसे कोई दूर की ध्वनि सुनता है। मन में कोई अन्य विचार नहीं आना चाहिए। केवल उसी को सुनने की धुन सवार हो। यदि शुरू में ध्वनि सुनाई न दे तो दो-तीन बार लम्बा श्वांस खींच लेना चाहिये। प्राणायाम करने वालों को यह ध्वनि अत्यन्त स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ती है। श्वांस खींचने से धड़कन तेज हो जाती है और स्पष्ट सुनाई देने लगती है। कभी कभी श्वांस खींचने पर भी वह ध्यान में नहीं आती। उस समय घबड़ाना नहीं चाहिये। लगातार प्रयत्न करते रहना चाहिये। कुछ ही दिनों में ध्वनि स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ने लगेगी। यहां तक कि सोते-जगते, चलते-फिरते तथा काम-काज करते हुए भी उसका अनुभव होगा।
यद्यपि यह एक प्रकार की ध्वनि ही होगी, किन्तु थोड़ा ध्यान देने पर पता चलेगा कि इससे 'ओऽम' शब्द ध्वनित हो रहा है और कण्ठ को वेधता हुआ मस्तिष्क में जा पहुंचा है। उस समय आज्ञा चक्र एवं सहस्रार के प्रत्येक दल से इसकी गुंजार आ रही है। पुन: नीचे उतर कर नाभि चक्र और दूसरे स्थूल चक्रों में भी सुनाई देगी। इस साधन को करते हुए साधकों को अनेक प्रकार के प्रकाश भी दृष्टिगोचर होते
हैं। ये प्रकाश विभिन्न चक्रों तथा तत्वों के होते हैं। परन्तु किसी-किसी __ को नहीं दिखाई पड़ते। यह संस्कार की बात है।
जिस समय शब्द के साथ तन्मयता हो जाय, लक्ष्य के अतिरिक्त अपना अथवा अन्य किसी वस्तु का ध्यान न आवे, प्रेम में विभोर होने पर जब रोम-रोम से अमृत झरने लगे, शरीर पुलकायमान और
हीरक जयन्ती स्मारिका
अध्यापक खण्ड /२०
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