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जिनका प्रयोग हम आज कर रहे हैं, विस्तृत व स्पष्ट रूप प्रदान किया। वेदों में जो सिद्धांत व विधियां सूत्र रूप में हैं, वे इस काल में अपनी पूर्ण संभावनाओं के साथ जन साधारण के सामने आईं। भारतीय गणित के इस स्वर्णयुग की स्मृति में भारत ने अंतरिक्ष में जो प्रथम उपग्रह स्थापित किया उसका नाम आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया। इस काल के कतिपय महान् गणितज्ञों एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त वर्णन अग्रवत्
इसमें ज्या (sine), उत्क्रम ज्या (Verse-Sine) तथा कोटिज्या (Cosine) के मान का उल्लेख है। ध्यान रहे कि यही ज्या व जीव अरब जाकर जेब (Jaib) हो गयी जिसका शब्दिक अनुवाद लैटिन में जेब (पाकिट) अर्थात् Sinus किया गया। यही Sine शब्द आगे चलकर Sinus हो गया। इसी प्रकार कोटिज्या (Cosine) हो गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि त्रिकोणमिति के विस्तार में भारतीयों का बहुमूल्य योगदान रहा है। त्रिकोणमिति शब्द शुद्ध भारतीय है जो कालान्तर में Trigonometry हो गया। भारतीयों ने त्रिकोणमिति का प्रयोग ग्रहों की स्थिति, गति आदि के निर्धारण में किया।
इस काल में बीजगणित का विस्तार गणित के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन था। वक्षाली पाण्डुलिपि में इष्ट कर्म (Rule of false position) में। अथवा 100 के स्थान पर अव्यक्त राशि कल्पित की गयी है। गणितज्ञों की मान्यता है कि इष्टकर्म ही बीजगणित के विस्तार का आदि स्रोत है। भारतीयों ने धन, ऋण जो चिन्ह मात्र हैं, उनके जोड़, घटाना, गुणा, भाग आदि के लिए नियमों को विकसित किया। महान् गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त (628 ई0पू0) ने बताया कि “धन संख्या और ऋण संख्या का गुणनफल ऋण संख्या, दो ऋण संख्याओं का गुणनफल धन संख्या तथा धनसंख्या और धनसंख्या का गुणनफल धन संख्या होती है।"
भारतीयों ने वर्ग, धन आदि घातों (Powers) के लिए संकेतों का प्रयोग किया। वही संकेत आज भी प्रयुक्त किये जाते हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में कुछ बीजगणितीय घात नियम दिये हुए हैं। जैसे
क का प्रथम वर्ग - क क का द्वितीय वर्ग = (क) - क. क का तृतीय वर्ग = (क) = क क का प्रथम मूल = क = क 1/2
क का द्वितीय मूल = क = क 1/4 आदि। नि:संदेह अंकगणित की भांति बीज गणित भी भारत से अरब पहुंचा। अरब देश के गणितज्ञ (AL-KHOWARIZMI) अपनी पुस्तक “अलजब्र" व "अल मुकाबला' में भारतीय बीजगणित पर आधारित विषय का प्रतिपादन किया है। उनकी पुस्तकों के नाम पर इस विषय का नाम (Algebra) पड़ गया।
जहां तक अन्य राष्ट्रों की बात है, हम पाते हैं कि “यूनानी गणित" के स्वर्णयुग में आधुनिक अर्थ में अलजबरा का नामोनिशान तक न था। Classical Period में यूनानी लोग बीजगणित के अनेक कठिन प्रश्नों को हल करने की योग्यता रखते थे, परन्तु उनके सभी हल ज्यामितीय होते थे। बीजगणितीय हल वहां सर्वप्रथम Diaphantus (275 ई0 लगभग) के ग्रन्थों में पाये गये हैं। उस समय भारतीय लोग बीज गणित में अन्य राष्ट्रों से बहुत आगे थे। मध्यकाल या स्वर्णयुग (400 ई0 से 1200 ई0 तक):
इस काल को भारतीय गणित का स्वर्णयुग कहा जाता है, क्योंकि इस काल में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, महावीराचार्य, भास्कराचार्य जैसे अनेक श्रेष्ठ एवं महान् गणितज्ञ हुए जिन्होंने गणित की सभी शाखाओं को,
आर्यभट्ट (499 ई0 - प्रथम):
ये पटना के निवासी थे। आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक 'आर्यभट्टीय गणितपाद' के 332 श्लोकों में गणित के महत्वपूर्ण एवं मूलभूत सिद्धांतों को साररूप में कह दिया है। आर्यभट्टीय के प्रथम दो पादों में गणित तथा अंतिम दो पादों में ज्योतिष का विवरण है। प्रथम पाद दशमीतिका में बड़ी-बड़ी संख्याओं को वर्णमाला के अक्षरों द्वारा निरूपित करने की विधि भी बताई गयी है।
इसके द्वितीय पाद "गणित पाद" में अंकगणित, रेखागणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के अनेक कठिन प्रश्नों का समावेश है। बीजगणित में साधारण तथा वर्गीय समीकरण कुटक अर्थात् अनिर्णीत समीकरण का विस्तृत विवरण है। आर्यभट्ट ने त्रिकोणमिति में सर्वप्रथम व्युत्क्रम ज्या का प्रयोग किया जो बाद में पाश्चात्य जगत में (verse sine) के नाम से जाना जाने लगा। रेखा गणित के क्षेत्र में इन्होंने IT का मान दशमलव के चार स्थानों तक 3.1416 ज्ञात किया जो आज भी सही माना जाता है। इन्होंने बताया कि 20,000 इकाई व्यास वाले वृत्त की परिधि का मान 62,832 इकाई होता है अर्थात्...
T62832/20,000 = 3.1416 अंकगणित के क्षेत्र में भी इन्होंने वर्गमूल एवं घनमूल ज्ञात करने की विधियों एवं त्रैराशिक नियम का भी उल्लेख किया है। यह हर्ष की बात है कि सबसे पहले आर्य भट्ट ने ही स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया कि पृथ्वी गतिशील और सूर्य स्थिर है। जिसे पश्चिम में कोपरनिकस ने 1100 वर्षों बाद 16वीं शताब्दी में स्वीकार किया और 1642 में गैलीलियो को इसी बात पर अंधा किया गया। वराहमिहिर (550 ई):
ये आर्यभट्ट के बाद महान् गणितज्ञ एवं दार्शनिक थे। इनके ग्रन्थ पंच सिद्धान्तिका, वृहत्संहिता, वृहज्जातक हैं। वराहमिहिर द्वारा रचित 'वाराहशुल्वसूत्र' इनकी प्रसिद्ध कृति है। इसमें गणित के सभी अंगों पर समुचित प्रकाश डाला गया है। वेदियों के निर्माण संबंधी बीज के बहुत से सूत्र इसमें हैं। भास्कर (प्रथम) (600 ई0) :
भास्कर ने अपनी पुस्तक महाभास्करीय, आर्यभट्टीय भाष्य और लघु भास्करीय में आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को और विकसित एवं विस्तृत किया। कुटक (अनिर्धार्य) समीकरण पर इन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया है। ब्रह्मगुप्त (628 ई0):
हीरक जयन्ती स्मारिका
अध्यापक खण्ड /३
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