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राजकुमारी बेंगानी
एक कपर्दक अत्यधिक व्यावसायिक व्यस्तता के कारण झुंझलाए हुए धनदत्त ने छोटे भाई को पुकारते हुए कहा, "अभी तक तुम्हारा पूजा पाठ समाप्त नहीं हुआ देवदत्त ? हो गया भैया! बस आ ही रहा हूं।" देवदत्त ने उत्तर दिया। "बस आ रहा हूं, आ रहा हूं, अरे। जब वृद्धावस्था आए, बैठे-बैठे पूजा पाठ करते रहना। यह उम्र है व्यवसाय की, धर्माभ्यास की नहीं।"
प्रणाम करते हुए देवदत्त ने नम्रता पूर्वक कहा, “भैया धर्मशास्त्र तो कहता है, जब तक इन्द्रियां शिथिल न हों, वार्धक्य दूर रहे, तभी तक का समय धर्माराधना के लिए उत्तम है। फिर कौन कह सकता है वार्द्धक्य आए या नहीं।"
भाई की इन वैराग्यमयी बातों का कोई उत्तर नहीं दे पाए धनदत्त । किन्तु मन ही मन निर्णय किया, 'मुझे धनोपार्जन के लिए विदेश चला जाना चाहिए। जब गृहस्थी का सारा भार कंधों पर आ पड़ेगा तो बाध्य हो जाएगा व्यवसाय में रत होने को।'
एतदर्थ एक शुभ दिन नौकाओं में विभिन्न प्रकार के पण्य लादकर धनदत्त विदेश यात्रा को निकल पड़े। नाना स्थानों में भ्रमण करते हुए पुण्योदय और पुरुषार्थ से विपुल सम्पत्ति अर्जित कर ली धनदत्त ने। अब उनकी इच्छा हुई घर लौटकर स्वजनों से मिलने की।
किन्तु इतनी धनराशि लेकर अकेले यात्रा करना भी तो खतरे से खाली नहीं था। कई लुटेरों का भय बना हुआ था। अतः उन्होंने समस्त धनराशि को कुछ बहुमूल्य मणियों में बदल लिया और एक कोमल
बांस की खोखली नलिका में उन्हें भरकर कमर में बांध लिया, कुछ मुद्राएं राह खर्च के लिए भी रख ली थीं। __ अब इसी भांति तैयार होकर धनदत्त भ्रमण करते हुए स्वग्राम के निकट एक वन में पहुंचे। पास ही के गांव से आहारादि के लिए खाद्य पदार्थ खरीदने को उद्यत हुए। किन्तु बांस नलिका को साथ ले जाना उचित नहीं समझ अत: एक अश्वथ वृक्ष के नीचे खड्डा खोदकर उसमें उसे गाड़ दिया और गांव की ओर चले। ___ दुर्भाग्यवश उसी पेड़ के ऊपर एक लकड़हारा काष्ठ संग्रह के लिए बैठा था। उसने चुपचाप सारा दृश्य देखा और उनके जाने के पश्चात् धीरे से पेड़ से नीचे उतर कर खड्डा खोदकर नलिका निकाल ली, किन्तु उस गरीब ने उन बहुमूल्य मणियों को रंग-बिरंगे कांच के टुकड़े समझा। फिर भी 'इनसे अवश्य ही कुछ द्रव्य मिलेगा' सोचकर गांव की ओर रवाना हो गया।
धनदत्त गांव के उपकण्ठ पर स्थित एक सरोवर में स्नान के लिए उतरे। स्नानोपरांत वे भी उस वन की ओर चल पड़े। राह खर्च के लिए जितनी मुद्राएं इन्होंने पास में रखी थीं उनमें से अब मात्र एक कपर्दक (कोड़ी) बच गया था। उन्हें स्मरण हुआ कि 'अरे ! वह तो मैं सरोवर के किनारे ही भूल आया।' ___ बड़े ही लालची थे धनदत्त । एक कपर्दक खोना भी उन्हें सहन नहीं हुआ। अत: उसे लेने के लिए पुन: लौटे। लेकिन मन में भय बना था 'अवश्य ही वहां से लौटने में मुझे देर हो जाएगी। कोई दस्यु रात्रि के समय मेरी नलिका निकाल न ले।' किन्तु संवरण नहीं कर पाए उस अतिलोभ को। वही हुआ जो सोचा था। पहुंचते-पहुंचते रात हो गई और उन्हें विवश होकर उस गांव में ही रूकना पड़ा।
इधर धनदत्त के माता पिता भी पुत्र वियोग में अत्यंत व्याकुल थे। बारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे उससे मिले। उन्होंने देवदत्त से कहा, 'पुत्र अब हम लोगों से धनदत्त का विछोह सहा नहीं जाता। यदि हमारे प्राण बचाना चाहते हो तो शीघ्र ही उनकी खोज खबर लो।' देवदत्त स्वयं भी भाई की याद में विकल था अत: उसने एक उपाय निकाला। वह प्रतिदिन गांव के प्रमुख द्वार पर आहार जल साथ लेकर चला जाता
और आए हुए पथिकों से, यात्रियों से भाई के विषय में पूछताछ करता। ____ संयोगवश वही लकड़हारा लकड़ी का भार लिए द्वार पर पहुंचा।
बड़ा ही पिपासात था। देवदत्त के पास जल देखकर पानी पीने की इच्छा प्रकट की। उसने भी उसे पानी ही नहीं आहारादि देकर पूर्णत: सन्तुष्ट किया। उसकी साधुता ने लकड़हारे का विश्वास जीत लिया। अत: उसने वह नलिका देवदत्त को दिखाया और मणियों को बेचना चाहा। उस नलिका पर धनदत्त का नाम ख़ुदा था। उसे पढ़ते ही वह चौंक पड़ा। उसने लकड़हारे से निर्भीक होकर नलिका के विषय में सब कुछ बताने को कहा। सारा वृतान्त सुनने के पश्चात् उसने कुछ द्रव्य देकर लकड़हारे से वह नलिका खरीद ली और भावी दुर्घटना को अनुमान कर तुरन्त उसी स्थान की ओर चल पड़ा जहां से लकड़हारे ने नलिका
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / १०५
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