________________
सरस्वती भण्डार अथवा ग्रन्थागार निर्मित हुए जो सौभाग्य से अभी तक सुरक्षित हैं।
ऋषभनाथ की गुप्त कालीन प्रस्तर पट मूर्ति में उनका नाम "ऋषभस्य प्रतिमा" लिखा है। कन्धे पर जटा पड़ी है इससे आदिनाथ की मूर्तियों को पहचानने में बड़ी सहायता मिली। कालान्तर में तो सभी जिनों के निश्चित चिन्ह, यक्ष, शासन देवता आदि स्थिर हो गए।
एक ओर मथुरा जैन मूर्तिकला, स्थापत्य और धर्म ग्रन्थों के विशाल केन्द्र के रूप में ईसा से कई शती पूर्व विकसित हो रहा था उधर बिहार में मौर्य नरेश आजीवक जैन साधुओं के विश्राम के लिए बराबर की पहाड़ियों में कुटियों की व्यवस्था कर रहे थे। बिहार तीर्थंकरों की अवतार भूमि रही है अत: जैन अनुयायी अथवा सहिष्णु शासकों के लिए यह पुण्यार्जन का कार्य था। उड़ीसा भी इस दृष्टि से अग्रणी रहा और द्वितीय शती ई0 पू0 में खारवेल नामक जैन सम्राट ने अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि गुहा में एक विस्तृत ब्राह्मी लेख में छोड़ा है। इनमें एक घटना जैन कला और पुरातत्व के दिग्दर्शन के लिए अत्यन्त उपयोगी है। वह उस जिन मूर्ति को कलिंग वापस लाने में सफल हुआ, जिसे पूर्ववर्ती मगध नरेश ले गए थे। यह कौन सी मूर्ति है और कहां है यह विवादास्पद है। वैसे एक जैन प्रतिमा जो पटना के पास लोहानीपुर से मिली अब पटना संग्रहालय में है। कला शैली की दृष्टि से अवश्य ही यह मौर्यकाल की है। किन्तु यह कहना कठिन है कि खारवेल के शिलालेख में जिस प्रतिमा का वर्णन है वह यही है क्योंकि पुन: यह कलिंग से मगध कैसे पहुंची इस बारे में इतिहास व पुरातत्व मौन है।
यहां विचारणीय तथ्य यह है कि जिन मूर्तियां मौर्य युग में निर्मित व पूजित होती थी और उनकी प्रतिष्ठा शासकों की प्रतिष्ठा थी। खारवेल ने भी जैन साधुओं के विश्राम, चिन्तन, मनन, अनुशीलन के लिए उदयगिरि-खण्डगिरि में आश्रय स्थल बनवाए। इन कक्षों पर अनेक कथानक उत्कीर्ण हैं। स्थिति को देखते हुए यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि पहाड़ी का एक भाग सभा स्थल अथवा प्रेक्षागार के रूप में बनाया गया जहां से लीला अथवा नाटकों का मंचन होता था। कला व पुरातत्व की दृष्टि से उदयगिरि-खण्डगिरि का जैन गुहा समूह प्रशंसनीय है।
कुछ शताब्दियों तक गुहा तक्षण अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और पश्चिमी भारत पर्वत विश्रामालयों का केन्द्र बन गया। इस दिशा में पहले पांच सौ वर्षों तक बौद्धों का वर्चस्व रहा जिसके फलस्वरूप भाजा, कार्ले, कोण्डाने, बाघ, अजन्ता आदि प्रसिद्ध गुहा मण्डप बने। कालान्तर में हिन्दू व जैन समाज ने भी इस पद्धति को अपनाया। एलोरा इस दृष्टि से उल्लेखनीय है क्योंकि यहां तीनों धर्मों के गुहा मण्डप हैं। संवत् 30 से 34 तक के गुहा मण्डप जैन हैं जो नवीं शती में बने। इनमें छोटा कैलास और इन्द्र सभा प्रसिद्ध है। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि गुहा तक्षण सामान्य भवन पद्धति से अधिक कठिन श्रमसाध्य तथा कुशलता का परिचायक है। गुहा तक्षण कुछ अन्य देशों में भी हुआ किन्तु भारतीय गुफा मण्डपों की कोई तुलना नहीं। विश्व स्थापत्य के
लिए भारत का यह विलक्षण योगदान है। सामान्य भवन में तो यदि कोई त्रुटि हो जाय तो उसका परिष्कार व परिवर्तन संभव है, किन्तु पर्वत तक्षण में परिष्कार व परिवर्तन का कोई अवसर नहीं। यहां तो पर्वत को काटकर ही सब कुछ बनाना है। शिल्प, लतावल्लरी, स्तम्भ, द्वार, प्रकोष्ठ और यहां तक कि उपास्य मूर्तियां भी पर्वत का ही अंग है बाहर से लाकर कुछ नहीं लगाया जाता। अत: कला साधना में अत्यन्त सावधानी अपेक्षित है। साथ ही गुहा तक्षण में तक्षण कार्य ऊपर से होता है नीचे से नहीं, क्योंकि यहां नींव की आवश्यकता नहीं। एलोरा की जैन गुफाएं इसी विलक्षणता की द्योतक हैं। बादामी की जैन गुफा एलोरा से पूर्ववर्ती और छोटी है।
दक्षिण भारत में भी जैन धर्म का प्रसार हुआ और कर्नाटक इस दृष्टि से अग्रणी है। गोमटेश्वर की विशाल प्रतिमा न केवल आकार की दृष्टि से आश्चर्यजनक है अपितु इसका कलात्मक सौष्ठव भी सराहनीय है। विशालता में सौम्यता, यौवन में निवृत्ति, वैभव में तपोवृत्ति आदि का विलक्षण समन्वय इस मूर्ति के माध्यम से दिग्दिगन्त में प्रस्फुटित होता है और हम सब इस अलौकिक उपलब्धि के समक्ष कितने बौने दीखते हैं।
जब मन्दिर निर्माण का प्रचलन हुआ तो जैन कलाकार और आश्रयदाता भी अग्रपंक्ति में रहे। युगधर्मीय गुणों के साथ कुछ दोष भी परिलक्षित हुए। क्योंकि खजुराहो के अन्य मन्दिरों के साथ ही जैन मन्दिर भी बने अत: दसवीं शती के पार्श्वनाथ आदि मन्दिरों में भी प्रणय और रति क्रीड़ा के प्रसंग प्रवेश कर गए। आचार्य जिनसेन कृत नवीं शती ई0 के हरिवंश पुराण में प्राप्त एक संदर्भ उल्लेखनीय है, जिसके अनुसार धर्म से विमुख और भोग में लिप्त तत्कालीन समाज को देवालयों के प्रति आकृष्ट करने के लिए रति और कामदेव की लीलाओं का अंकन आवश्यक समझा गया ताकि उनसे मोहित हो वे जिनालय तक पहुंचे और वहां कुछ देर धार्मिक प्रवचन सुनकर सन्मार्ग की ओर अग्रसित हो सकें। यही लक्ष्य होगा प्रणय लीलाओं को निवृत्ति प्रधान जैन धर्म में अपनाने का। किन्तु इसके दुष्परिणाम भी हुए। सभी धर्मों में इसकी अतिशयता से उद्देश्य विफल हो गया।
जैन शिल्प के वैभव की उत्कृष्टता दिलवाड़ा मन्दिर समूह में अवलोकनीय है। यहां तक्षण में शिल्प का इतना प्राधान्य है कि मन्दिर स्थापत्य शिल्प शास्त्र का नमूना बन गया है। संगमरमर का प्रचुर प्रयोग प्रथम बार 11वीं शती में यहीं हुआ। बाहर से मन्दिर जितने सादे लगते हैं अन्दर से उतने ही अलंकृत । गुम्बद का तक्षण विशेष रूप से दर्शनीय है। किन्तु तक्षण की अतिशयता वास्तु पर हावी हो गई है और रूपाकृतियों की निरन्तरता और एक रूपता कुछ समय में नेत्रों को खटकने लगती है। “अति सर्वत्र वर्जयेत्" का उल्लंघन श्रेष्ठि विमल शाह ने 11वीं शती में किया और इसकी पुनरावृत्ति 13वीं शती में तेजपाल और वस्तुपाल ने की। यदि इन कुछ त्रुटियों को उपेक्षित कर दिया जाय तो दिलवाड़ा के जैन मन्दिर वास्तव में शिल्प की पराकाष्ठा के द्योतक हैं।
जिन मूर्तियां तो साधनारत भाव में बैठी ध्यानस्थ अथवा खड़ी कायोत्सर्ग
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / १०३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org