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राजाओं ने भी रणजीत सिंह के सिक्कों का अनुसरण किया।
सन् 1727 ई0 में अवध के नवाबों द्वारा बनारस से सिक्के मुद्रित किए जाने लगे। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बनारस क्षेत्र को हस्तगत कर लिए जाने के उपरांत असफउद्दौला और उसके उत्तराधिकारियों ने लखनऊ से सिक्के प्रसारित किए। रोहिल खंड के अवध शासन में मिल जाने के पश्चात् वहां से भी इनके सिक्के जारी हुए। बाद में गाजीउद्दीन हैदर, नसिरूद्दीन हैदर, मुहम्मद अली, अमजद अली, वाजिद अली ने क्रमश: सिक्के मुद्रित किए। 1857 ई० में जब भारत वर्ष में अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का आरम्भ हुआ तब अवध में ब्रिजिस कादिर को नवाब वजीर बनाया गया और उसके द्वारा प्रचलित कुछ सिक्के हमें इस अवधि में प्राप्त हुए हैं।
उधर मैसूर क्षेत्र में सन् 1761 ई0 में हैदरअली द्वारा सत्ता सम्भाल लिए जाने के पश्चात् हम विभिन्न प्रकार के सिक्के वहां से प्रचलित हुए देखते हैं। उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने भी बहुत सी धातुओं में विभिन्न प्रकार के सिक्कों का प्रचलन किया। टीपू सुल्तान की मृत्यु के उपरांत सन् 1799 ई0 में मैसूर की सत्ता छः वर्षीय कृष्ण राजा वाडियार को हस्तान्तरित की गई। उसके नाम से भी सिक्कों का प्रचलन हुआ ।
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पंद्रहवीं शताब्दी से हम पुर्तगाली, डच, डेनिस, अंग्रेजों एवं फ्रांसिसियों का भारतवर्ष में प्रवेश देखते हैं। व्यापार के साथ-साथ इन्होंने स्थानीय राजनीति में भी सक्रिय भाग लिया तथा भारतीय भूभाग को हथिया कर विभिन्न स्थानों से अपने व्यापारिक संस्थानों के नाम से सिक्कों का प्रचलन किया। इन व्यापारिक संस्थानों में पुर्तगालियों ने सर्वप्रथम वास्कोडिगामा के नेतृत्व में सन् 1498 में कालीकट में प्रवेश किया और उन्होंने बाद में इयू, दमन, सलसेत, बेसिन, चोल और मुंबई में तथा सान धोम, हुगली में अपने उपनिवेश स्थापित किए। धीरे-धीरे ये क्षेत्र उनके हाथों से निकलते गए और अंततः 1961 ई० में द. यू. दमन और गोआ को भी स्वतंत्र भारतवर्ष में सम्मिलित कर लिया गया। डच लोगों द्वारा प्रथम व्यावसायिक संस्थान पुलिकर मेंसन 1609 में खोला गया तथा सन् 1616 तक उन्होंने सूरत में भी संस्थान स्थापित किया। मालाबार क्षेत्र, मछलीपत्तन, हुगली, कासिम बाजार, ढाका, पटना तथा सूरत अहमदाबाद और आगरा में भी उनके द्वारा व्यापारिक क्रियाएं चालू की गईं तथा 1759 में चिनसुरा के युद्ध में क्लाइव द्वारा हराए जाने तक उन्होंने विभिन्न जगहों से अपनी कंपनी के सिक्के प्रसारित किए। इसी तरह सन् 1620 में डेनिस लोगों ने नायक शासकों से ट्रंकेबार को प्राप्त किया तथा बाद में पोर्टोनोवो और बंगाल में श्रीरामपुर और बालासोर में भी अपने उपनिवेश स्थापित किए। लगभग दो शताब्दियों तक इन स्थानों से डेनिस लोगों द्वारा सिक्के प्रचलित किए जाते रहे फ्रांसीसी लोगों द्वारा ली गई अपनी प्रथम औद्योगिक इकाई सन् 1668 में सूरत में स्थापित की तथा सन् 1669 में अन्य इकाई मछलीपत्तन में स्थापित की 1673 ई० में उन्होंने वालिकोंडिपुरम के गवर्नर से एक गांव प्राप्त कर पांडीचेरी की स्थापना की। बंगाल में भी उन्होंने सन् 1690 में चंदननगर में औद्योगिक इकाई की स्थापना की। सन् 1725 में उन्होंने माहे को तथा 1734 में कारीकल को अधिग्रहित कर लिया। लेकिन 1815 ई0 तक फ्रांसिसियों को अंग्रेजों के हाथों राजनैतिक असफलताओं का सामना
हीरक जयन्ती स्मारिका
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लगातार करना पड़ा। इस अवधि के मध्य उन्होंने विभिन्न प्रकार की मुद्राएं विभिन्न आकार-प्रकार एवं धातुओं में प्रचलित कीं ।
सन् 1613 ई० में अंग्रेजों को जहांगीर द्वारा सूरत में व्यावसायिक प्रतिष्ठान प्रारम्भ करने की अनुमति दिए जाने के साथ ही उनका भारतीय राजनैतिक क्षेत्र में प्रवेश होता है। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने अपने व्यापारिक संस्थान आगरा, अहमदाबाद और भरोच में भी स्थापित किए। सन् 1668 ई0 में अंग्रेजों ने पुर्तगालियों से मुंबई को चार्ल्स द्वितीय की केथरीन के साथ विवाहोपलक्ष में दहेज के रूप में प्राप्त किया। धीरे-धीरे उन्होंने विभिन्न जगहों में व्यापारिक संस्थान खोले और सत्तरहवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक अपने व्यवसाय को सर्वत्र भारत में फैलाया। लेकिन सत्रहवीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध से उन्होंने राजनैतिक एवं सामरिक हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया और 1834 ई0 तक उन्होंने समस्त भारतवर्ष पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया । यद्यपि 1857 में भारतीय लोगों ने उनके विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया था परन्तु हमें स्वतंत्रता सन् 1947 में जाकर मिली तथा अंग्रेजी साम्राज्य का अंत हुआ। इस लम्बी अवधि में अंग्रेजों ने भी विभिन्न आकार-प्रकार के सिक्कों का मुद्रण किया।
स्वाधीन भारत ने सन् 1950 तक किसी भी प्रकार के सिक्के नहीं प्रचलित किए। 1950 के 15 अगस्त के दिन पहला भारतीय सिक्का जारी किया गया। सन् 1957 में भारत वर्ष में दसमलव प्रणाली के सिक्के प्रचलित किए गए जिन्हें "नया पैसा" कहा जाता था। ये सिक्के 1 जून, 1964 तक निरन्तर प्रचलन में रहे। इसके बाद से “नया पैसा" शब्द को सिक्कों से हटा दिया गया। इनके अतिरिक्त बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्तियों तथा विषयों पर विशेष प्रकार के सिक्के भी प्रचलित हुए। इस तरह निरन्तर भारतीय सिक्कों का प्रचलन विभिन्न आकार-प्रकार और इकाइयों में हो रहा है और भारतीय सिक्कों की कहानी अपनी तारतम्यता बनाए रख पा रही हैं।
सन्दर्भ
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विद्वत् खण्ड / ९९
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