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0 डा0 प्रेम सुमन जैन
जैन साहित्य और
उसका हिन्दी से सम्बन्ध सांस्कृतिक महत्व :
देश की विभिन्न भाषाओं में जैन साहित्य उपलब्ध है। अत: उसमें विभिन्न प्रान्तों की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के महत्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध होते हैं। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से लेकर वर्तमान युग तक जैन साहित्य का निरन्तर सृजन होता रहा है, अत: विभिन्न युगों के सांस्कृतिक परिवर्तनों का साक्षी जैन साहित्य है। जैन साहित्य में उपलब्ध सांस्कृतिक तथ्यों की प्रामाणिकता इसलिये स्वीकार्य है कि ये जन-जीवन से जुड़े हुए हैं। केवल आदर्श या काल्पनिक उड़ानें उसमें नहीं हैं। वह दरबारी साहित्य नहीं है। उसके लेखक अधिकांश साधक आचार्य हैं, जिनकी कथनी-करनी की प्रामाणिकता उनके साहित्य में भी प्रतिबिम्बित हुई है।
जैन साहित्य में वर्णित संस्कृति के विभिन्न आयाम हैं। उसमें दर्शन और अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन है। सिद्धांतों का विशद प्रतिपादन है। मुनि एवं गृहस्थ-जीवन का विस्तार से वर्णन है। इस सबको प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न कथाओं, दृष्टान्तों एवं उपाख्यानों का मनोहारी चित्रण है। किन्तु इस सबके भीतर कुछ ऐसी सांस्कृतिक सूचनाएं भी हैं, जो अन्य भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। इतिहास जिनके सम्बन्ध में प्रायः मौन है, उन्हीं तथ्यों की
ओर जैन साहित्य के पाठकों का ध्यान आचार्यों ने आकर्षित किया है। इससे भारत के सांस्कृतिक विकास की सही जानकारी में मदद
मिल सकती है।
प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य में कथावस्तु एवं पात्रों का चयन जन-जीवन में से किया गया है। अत: इस साहित्य में समाज के समृद्ध और शक्तिशाली व्यक्तियों का ही चित्रण नहीं है, अपितु सर्वहारा, दीन-हीन और उपेक्षित समझे जाने वाले उन व्यक्तियों के जीवन का भी चित्रण है, जो चरित्र एवं सौहार्द के धनी हैं। जैन लेखकों की इस उदार और सर्वग्राही दृष्टि के कारण जैन साहित्य में पहली बार सूक्ष्मता से ग्राम्य संस्कृति का चित्रण हो सका है। इससे भारतीय साहित्य कृत्रिमता और विलासी जीवन से बहुत हद तक मुक्त हुआ है। आंचलिकता को महत्व देने के कारण जैन साहित्य ने विभिन्न प्रदेशों की लोक-संस्कृति की सुरक्षा की है।
अनेक जातियों के जीवन-क्रम को नष्ट होने से बचा लिया है। ___ किसी भी साहित्य में संस्कृति के संवाहक उसके शब्द होते हैं। जैन साहित्य का एक यह महत्वपूर्ण पक्ष है कि उसमें लोक प्रचलित शब्दों और भाषा के प्रयोग का विशेष महत्व दिया गया है। इस कारण देश की उस शब्द सम्पदा को जैन साहित्य ने सुरक्षित रखा है, जो मनुष्य के सांस्कृतिक विकास को अपने में छुपाये हुए है। भारतीय भाषाओं का इतिहास तब तक पूरा नहीं लिखा जा सकता जब तक जैन साहित्य का भाषात्मक विवेचन न किया जाय। इन सब पहलुओं पर चिन्तन-मनन किया जाना अपेक्षित है। पिछले पचास वर्षों में जैन साहित्य के कई ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। विश्वविद्यालयों में जैन ग्रन्थों पर शोध-प्रबन्ध भी लिखे गये हैं, किन्तु अभी भी नई दृष्टि से कार्य किया जाना शेष है।
सर्व प्रथम जैन साहित्य पर शोध-कार्य की प्राथमिकता अन्य भारतीय साहित्य के साथ उसके अन्तरंग सम्बन्धों की दी जानी चाहिए। जैन साहित्य की कई विधाएं भारतीय साहित्य से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं। कथावस्तु, कथारूढ़ियों, कवि-सम्प्रदाय, वस्तुवर्णनों आदि में जैन साहित्य और अन्य भारतीय साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। हिन्दी साहित्य के साथ तो इस प्रकार का अध्ययन और भी उपयोगी होगा। क्योंकि हिन्दी साहित्य और जैन साहित्य में गहरा सम्बन्ध है। हिन्दी साहित्य से सम्बन्ध :
हिन्दी साहित्य और जैन साहित्य के पारस्परिक सम्बन्ध की जानकारी के लिए भारतीय भाषाओं और साहित्य के विकास क्रम को जानना आवश्यक है। इस देश में प्रारम्भ से ही लोक भाषाओं में साहित्य लिखा जाता रहा है। पाली, प्राकृत और अपभ्रंश जैसी जनभाषाओं ने साहित्य को पर्याप्त समृद्ध किया है। इस साहित्य की धारा से भारत की आधुनिक भाषाओं-राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि का साहित्य प्रभावित हुआ है। इन सभी भाषाओं के साहित्य ने भाषा, शैली और स्वरूप की दृष्टि से हिन्दी साहित्य को प्रभावित किया है। अत: हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध किसी
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ८९
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