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जैसे कोई बच्चा फोड़े के दर्द से कराह रहा है, इसी बीच चलते हुए गिर जाये, हाथ की हड्डी टूट जाये तो बच्चा फोड़े के दर्द को भूल जायेगा और हड्डी का दर्द उस पर प्रभावी हो जायेगा। ठीक ऐसे ही चेतन पर जड़ प्रभावित है। आत्मा पर पुद्गल प्रभावित है। चले थे परमात्मा को ढूंढ़ने, फोड़े का इलाज कराने, संसार में फंस गये, परमात्मा को भूल गये, हड्डी टूट गई, फोड़े को भूल गये। ___ इंसान बाहर की दौड़ में लगा है। कितने लोग ऐसे हैं जो परमात्मा को या अपने आप को पाना चाहते हैं। कहने में भले ही कह देंगे कि हम परमात्मा का दर्शन करना चाहते हैं, लेकिन मायाजाल के सामने परमात्मा भी गौण हो जाता है। एक ओर लाख रुपये मिलते हैं, दूसरी ओर परमात्मा मिलता हो, तो लोग लाख की ओर लपकेंगे, परमात्मा की ओर नहीं। भले ही जिन्दगी भर कहते रहें, मुझे परमात्मा का दर्शन करना है, लेकिन जब किसी ने कहा, चलो परमात्मा दिखा दूं तो कहने लगे, ठहरो, लड़का बाहर गया है, वह आ जाये, उसे दुकान संभलवा कर चलता हूं। आसक्ति जड़ की, लगाव पुद्गल का, सम्मोहन संसार का, चेतन का सब कुछ तो जड़ के लिए न्यौछावर कर बैठे हो। ___ बाहर की दौड़ बाहर के उपकरणों से तादात्म्य बनाती है, अन्तर की दौड़ अन्तर से। तलाश कर रहे हो अन्तर की और दौड़ रहे हो बाहर। ठीक उल्टी यात्रा। और तो और व्यक्ति अपनी शक्ल भी आइने में देखकर पहचान पाता है? अपनी पहचान का भी माध्यम कोई और? दूसरे के द्वारा स्वयं को अच्छा कहे जाने पर, स्वयं को अच्छा समझ लेते हैं। स्वयं का परिचय भी दूसरों पर आधारित हो गया है। ___ मैंने सुना है, पोपटराम अपने दो दोस्तों के साथ तीर्थयात्रा पर निकला। नाम की तीर्थयात्रा थी, निकला तो घूमने-फिरने ही था। एक दिन चलते-चलते जब कोई गांव न आया, सांझ ढल गई तो जंगल में ही रात्रि विश्राम करना पड़ा। तीनों ने निर्णय किया कि प्रत्येक तीन-तीन घंटे पहरा देगा, दो सोयेंगे, एक जागेगा। पोपटराम के मित्रों में एक नाई था, दूसरा गंजा। सबसे पहले नाई पहरा देने के लिये खड़ा हुआ, शेष दोनों सो गये। नाई अकेला खड़ा-खड़ा तंग आ गया और कुछ न सुझा। वह पोपटराम के पास गया और उसका सिर मुंडन करने लगा। ___ जब तीन घंटे बीत गये, नाई ने पारी बदलने के लिये पोपटराम को उठाया। उसने सिर पर हाथ फेरा, बोलने लगा, मूर्ख तू ये क्या कर रहा है, तुमने मेरी जगह उस गंजे को उठा दिया है।
लोग अपनी पहचान भी बाहर से कर रहे हैं, औरों से कर रहे हैं। और इस बाहर की खोज में परमात्मा को भी बाहर ही खोजने लगे हैं। अमृत भीतर है, खोज बाहर चल रही है। भीतर की तो स्मृति भी नहीं है। दशों दिशाओं की तो सभी चर्चा किया करते हैं, लेकिन ग्यारहवीं की चर्चा कोई नहीं करता। मेरा इशारा इसी दिशा की ओर है। इसे अपनी दिशा कहें। कोई कहता है परमात्मा उत्तर में है, कोई कहता है दक्षिण में है, कोई कहता है पूर्व या पश्चिम में है, हकीकत में तो परमात्मा वहां है, जहां सभी दिशाएं गौण हो जाती हैं, वह है अन्तर-दिशा। जो जिस दिशा में है उसकी खोज उधर ही होनी चाहिए। गंगा का
मूल उत्स खोजने के लिए अगर व्यक्ति दक्षिण की ओर अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है तो उसकी खोज पूरी न होगी। गंगा का उत्स खोजना चाहते हो, तो वह तुम्हारे भीतर है, हमारी गंगोत्री हमारे भीतर है, जहां से बही है जीवन की धारा। माता-पिता से हमें जन्म मिला है, जीवन नहीं। चाहे सौ नाले गंगा में आकर मिल जायें, लेकिन वे गंगा के आदि स्रोत नहीं हो सकते। गंगा का आदि स्रोत तो गोमुख ही कहलायेगा।
आज हम पूरे शरीर में हैं। इससे पहले छोटे शरीर में थे। उससे पहले और भी छोटे शरीर में थे। जब मां के पेट में थे तब और भी छोटे थे। कभी ऐसा भी था जब मां के पेट में मात्र अणु थे। अणु से पूर्व के इतिहास को जानना चाहोगे? अणु से पूर्व भी हमारा अस्तित्व था। हम एक अदृश्य आत्मा थे। ये जितना, जो कुछ दिखाई दे रहा है यह अणु और परमाणु की विराटता है। कल्पना की जा सकती है बिना बीज के क्या वृक्ष का अस्तित्व हो पायेगा? अगर अपने जीवन के अतीत की ओर झांकोगे, तो स्वयं को छोटे से छोटा, अन्त में अदृश्य पाओगे और मूल स्रोत तो आखिर हम ही हैं और जिस दिन यह अणु
और अदृश्य उड़ जायेगा, इस दिन वह सब कुछ, जो आज देख रहे हो एक पिंजरा भर होगा, खाली पिंजरा जिसे मुर्दा कहकर फूंक दिया जायेगा, दफना दिया जायेगा।
लोग आत्मा की पहचान नहीं कर पाते और सारी जिन्दगी संसार के लिए खो देते हैं और जैसे खुद हैं वैसे ही अपना परमात्मा बना लेते हैं। जो शाकाहारी हैं, उसने अपना ईश्वर शाकाहारी बना लिया
और जो मांसाहारी हैं, उसने अपना ईश्वर मांसाहारी बना लिया। परमात्मा पर भी अपनी आकृति का आरोपण कर दिया। अगर संसार भर की जितनी मूर्तियां हैं, जितने ईश्वर के भेद-विभेद हैं, उनका निर्माण कार्य पशु-पक्षियों के हाथ में सौंप दिया जाता है तो जितने भगवान के चेहरे होते हैं, सब पशु-पक्षियों से मिलते-जुलते होते। पता नहीं ईश्वर ने इंसान को बनाया या नहीं, लेकिन इंसान ने तो अपना ईश्वर बना ही लिया। अपने ईश्वर को बाहर निर्मित न करें, अपने बनाये हुए परमात्मा की प्रार्थना न करें, क्योंकि वहां सारी-की-सारी प्रार्थनायें संसार की होंगी। अगर करनी है प्रार्थना तो उसकी करो, जिसने तुम्हें बनाया है। अन्यथा, ध्यान में भी बैठोगे तो वहां ध्यान में भी परमात्मा नहीं पति आयेगा,
अगर माला गिनने बैठोगे तो भगवान नहीं भोग आएंगे। ____ मैं आबू में था। ध्यान-साधना के लिए वहां तीन माह की स्थिरता
थी, काफी विदेशी लोग भी ध्यान का अभ्यास करने आते थे। एक दिन, इटली का एक जोड़ा हमारे पास बैठा था। दोनों ने कहा, हम इटली में भी रोज आधा घंटा ध्यान करते थे। हम दोनों की सर्विस अलग-अलग स्थानों पर है तथा 200 कि.मी. की दूरी पर है।
मैंने कहा, सो तो ठीक है, पर जरा यह बतायें कि आप दोनों आधे घंटे तक ध्यान में क्या करते हैं? पत्नी ने अपने पति की ओर इशारा करते हुए कहा, ये मुझे याद करते हैं और मैं इन्हें याद करती हूं।
इस घटना पर हंसी भी आ सकती है, लेकिन यह एक की नहीं, सबके जीवन की आपबीती है। अब तक हमारी ओर से किया जाने
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ७७
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