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आधुनिक यूरोप की उपज है। भारतीय सभ्यता के आरम्भ की खोज करते हुए विद्वान अक्सर वैदिक साहित्य तक रुक जाते हैं, यह खोज अधूरी है और इसमें स्पष्ट कालदोष है। इसके पहले तीसरी शताब्दी में हड़प्पा संस्कृति की जो खोज हुई है वह इस मान्यता का खंडन करती है। दरअसल इतिहासकारों ने साहित्यिक स्रोत को ही अधिक विश्वसनीय माना, उन्होंने पुरातात्विक साक्ष्य को गौण बना दिया। पुरातत्व का संबंध अतीत के भौतिक अवशेषों की खोज और उनकी व्याख्या से होता है। इसलिए यह अन्वेषण दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों के सम्बन्ध में साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। पहला शिल्प विज्ञान का अध्ययन । यह अध्ययन इस बात की जानकारी देता है कि संस्कृतियों में परिवर्तन कैसे और क्यों हुए? ___ इतिहास के अध्ययन में दूसरा उपादान परिवेश संबंधी साक्ष्य का होता है। यानि अमुक इतिहास काल में परिवेश का घटनाओं और घटनाओं का परिवेश पर कैसे प्रभाव पड़ा। ध्यान देने की बात है जब तक मनुष्य का अस्तित्व क्रम कायम है तब तक कोई संस्कृति मिटती नहीं। उन्नत संस्कृति नगर का अतिक्रमण कर अपने इर्द-गिर्द की ग्रामीण संस्कृतियों पर भी अपना प्रभाव छोड़ जाती है। ऐसे नागरिक सांस्कृतिक केन्द्रों का भौतिक दृष्टि से भले ही पतन हो जाय, लेकिन उनकी सांस्कृतिक परम्परा बहुधा नवागंतुकों द्वारा दाखिल किये गये रीतिरिवाजों को आत्मसात् कर लेते हैं। आज धीरे-धीरे यह जानकारी हो रही है कि हड़प्पा निवासी चाहे जो रहे हों, भारतीय सभ्यता के आदि प्रवर्तक वही थे। हड़प्पा के लोग नगर निवासी थे और ताम्रशिल्प विज्ञान का प्रयोग करते थे किन्तु ऋक्वैदिक लोग यायावर पशुपालक थे। इनकी अर्थ व्यवस्था पशुपालनोन्मुख थी और क्रमश: कृषि की ओर उन्मुख होती जा रही थी। सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद तीनों वैदिक ग्रन्थों से यह प्रमाणित होता है कि इनका भौगोलिक केन्द्र बिन्दु पंजाब-हरियाणा से खिसक कर द्वाबा और मध्य गंगाघाटी में पहुंच गया। इसमें ऐसे समाज की तस्वीर मिलती है जो पशुपालक से कृषक बन चुका है और नागरिक जीवन की श्रीगणेश हो चुका है।
भाषा का प्रश्न भी इतिहास, विज्ञान से सम्बद्ध होता है। यह बात गलत है कि भाषा का प्रचार विजय पर ही निर्भर करता है। जो भाषा जितनी अधिक उन्नति से जुड़ी होती है वह उतनी ही अधिक प्रचारित-प्रसारित होती है। इसलिए भाषा की दृष्टि से भी विभिन्न इतिहासकाल के विभिन्न सामाजिक रूपों के विकास को तभी समझा जा सकता है जब इस पर गौर किया जाय कि समाज किस प्रकार संगठित था, उसके रूप किस हद तक परिवर्तित हुए।
जाति समस्या के बारे में भी भारतीय इतिहासकारों ने भ्रमों को बढ़ावा दिया है। साथ ही साथ साम्राज्यवाद और आज के शोषक-शासक वर्ग इसे उन्माद का रूप दे रहे हैं। दरअसल प्राचीनकाल में जाति प्रधान समाज की विशेषता थी जातियों का अस्तित्व। जातियां विवाह संबंधों को निर्धारित करने वाले वंशानुगत समूह थे, उनका गठन श्रेणीबद्ध रूप में पेशे के अनुसार होता था। इसी आधार पर वे परस्पर एक दूसरे की सेवा करते थे। अत: जातियों का आधार समझने के लिए तत्कालीन
उत्पादन संबंधों को समझना पड़ेगा। धर्म शास्त्र सामाजिक वैधानिक ग्रन्थ हैं, लेकिन उसको सम्पूर्ण वास्तविक नहीं माना जा सकता। वास्तविकता तो यह है कि भारतीय सभ्यता का मूल या स्रोत केवल आर्य जाति में ही नहीं बल्कि कई संस्कृतियों के पारस्परिक सम्पर्क और इस सम्पर्क के फलस्वरूप एक दूसरे पर डाले गए प्रभाव में ढूंढ़ा जा सकता है।
भारतीय दर्शन और विचार के ऐतिहासिक विकास पर गौर किया जाय तो भौतिक स्थितियों, श्रम के स्वरूपों और पारस्परिक सम्पर्को की अनुभूति और प्रकृति से मानवीय सम्पर्क तथा उसके संघर्ष के गर्भ से ही दर्शन और विचार का उद्भव और विकास हुआ है। साम्राज्यवाद
और भौतिकवाद दोनों के विकास का उद्गम और प्रवाह भी उन्हीं भौतिक संबंधों से प्रतिफलित होता है। अत: केवल यह मानना कि प्राचीन भारतीय संस्कृति केवल पारलौकिकता के मूल्यों से ग्रसित थी, वह लौकिकता की ओर उन्मुख नहीं थी, यह बेबुनियाद है। हां, यह बात जरूर है कि मूल्य के रूप में निवृत्ति का अन्य अधिकांश संस्कृतियों की तुलना में भारतीय संस्कृति में अधिक महत्व है। इस कारण को समझने के लिए भी इतिहास के वैज्ञानिक दृष्टिकोणों को अपनाना पड़ेगा।
सवाल उठाया जाता है कि आज जब भारत आधुनिक राष्ट्र का रूप ग्रहण करने की प्रक्रिया में है तो जाति प्रथा का उन्मूलन क्यों नहीं हो पाया। यद्यपि भारत द्वारा आधुनिक राष्ट्र का रूप ग्रहण करने की प्रक्रिया में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष, राष्ट्रीय एकता की विकसित होती हुई भावना, जाति प्रथा विरोधी आंदोलन तथा विद्रोह का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। इस आधुनिक राष्ट्र की उदीयमान राजनीतिक व्यवस्था में इसके सभी तबके समानता और बंधुत्व के स्तर की मांग कर रहे थे। यह एक क्रमिक और धीमी प्रक्रिया थी, संघर्षों की यह सभी भिन्न धारायें करीब-करीब साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की विराटधारा में मिल गईं। वस्तुत: यह प्रक्रिया वंश परम्परा पर आधारित जाति प्रथा वाली पुरानी हिन्दू प्रणाली के विघटन की ही प्रक्रिया थी, परन्तु औपनिवेशिक शासकों के हित के खिलाफ यह बदलाव उन पर असर डाल रहा था। पुराने समाज, उसके स्तर विभाजन, उसकी अर्थ व्यवस्था के बदलाव की प्रक्रिया धीमी, जटिल और यातनादायी थी। अतएव अंग्रेजों ने जाति प्रथा को बरकरार रखने वाले पुराने सामन्ती भूमि संबंधों पर न्यूनतम आधुनिक पूंजीवादी संबंध थोप दिये। वे अपने उपनिवेश को दृढ़ बनाये रखने के लिए स्थानीय शक्तिशाली पूंजीपति वर्ग को विकसित नहीं होने देना चाहते थे, इस प्रकार दो विरोधी प्रक्रियायें जारी थीं। एक ओर नये उत्पादन के साधन, कारखाने, और नये यातायात के साधन को विकसित करना। दूसरी ओर सामाजिक आर्थिक मदद पाने के लिए सामन्तों पर निर्भर रहना यानी जाति प्रथा को समर्थन देना। राष्ट्रीय आंदोलन के अधिकांश नेता हिन्दुओं की ऊंची जाति से आये थे, अभी उन्हें देशी औद्योगिक पूंजीपति वर्ग का पूर्ण समर्थन प्राप्त नहीं था। यह नेतृत्व आम जनता से अलग-थलग पड़ा था, वह अपने तत्कालीन अनुयायियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने से डरता था। वर्तमान में पददलित, पराभव से पीड़ित राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व वर्ग जनता में उसकी प्राचीन संस्कृति का गौरव जगाकर साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में पूरे भारत
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ५४
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