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गौतम : भन्ते, तब जीवन कैसे चलेगा? महावीर : संयत कर्म करो, बोलना आवश्यक हो तो संयम से बोलो, चलना
आवश्यक हो तो संयम से चलो, खाना आवश्यक हो तो संयम
से खाओ। गौतम : भन्ते, जब सत्य की खोज का मार्ग बताया जा सकता है तो
सत्य क्यों नहीं बताया जा सकता? महावीर : यह सत्यांश है। मैं सत्य का सापेक्ष प्रतिपादन करता हूं, पूर्ण
सत्य नहीं बताया जा सकता। इसलिए मैं कहता हूं कि सत्य नहीं कहा जा सकता। सत्यांश बताया जा सकता है। इसलिए मैं कहता हूं कि सत्य कहा जा सकता है। सत्य अवक्तव्य है और सत्य वक्तव्य है, इन दोनों का सापेक्ष बोध ही सम्यग्ज्ञान
गौतम : भन्ते, वक्तव्य सत्य क्या है ? महावीर : अभेद की दृष्टि से अस्तित्व (होना मात्र) सत्य है और भेद
की दृष्टि से द्रव्य और पर्याय सत्य है। द्रव्य शाश्वत है, पर्याय अशाश्वत है। शाश्वत और अशाश्वत का समन्वय ही सत्य
वह सर्प भगवान के पैरों से लिपट बार-बार उन्हें डसने लगा पर उनकी आंखों से निरन्तर अमृत की वर्षा होती रही। उनका मैत्री भाव विष को निर्विष करता रहा। अहिंसा की हिंसा पर विजय हुई। महावीर जैसे-जैसे साधना में आगे बढ़े वैसे-वैसे उनकी चेतना में समता का सूर्य अधिक आलोक देने लगा। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह सब उस
आलोक से आलोकित हो उठे। महावीर : “अरक्षा ही सबसे बड़ी सुरक्षा है। जो अपने आपको असुरक्षित
अनुभव करता है, वह अध्यात्म के मार्ग पर नहीं चल सकता। मुझे किसी सुरक्षा की अपेक्षा नहीं है। स्वतंत्रता और
स्वावलम्बन ही मेरी सुरक्षा है।" वाचक : भगवान महावीर की साधना का मूल मंत्र है समता, न राग
और न द्वेष, चेतना की यह अनुभव दशा समता है। उन्होंने लाभ-अलाभ, सुख-दुख, निंदा-स्तुति, मान-अपमान, जीवन-मरण की अनेक घटनाओं की कसौटी पर अपने को परखा और खरे उतरे। उनकी चेतना अनावृत्त हो गई। अभय साधना, समता की साधना सिद्ध हो गई। वह वीतराग की भूमिका में पहुंच केवली हो गये। इन्द्रिय, मन और बुद्धि
की उपयोगिता समाप्त हो गई। वाचिका : साधना काल में भगवान प्राय: मौन, अकर्म और ध्यानस्थ
रहे। साधना की सिद्धि होने पर उन्होंने सत्य की व्याख्या की। ईसा पूर्व छठी शताब्दी सत्य की उपलब्धियों की शताब्दी है। उस शताब्दी में भारतीय क्षितिज पर महावीर और बुद्ध, चीनी क्षितिज पर लाओत्से और कन्फ्यूशियस, यूनानी क्षितिज पर पाइथोगोरस जैसे महान् धर्मवेत्ता सत्य के रहस्यों का उद्घाटन कर रहे थे। बुद्ध ने कहा- “सत्य अव्याकृत है।" लाओत्से ने कहा, "सत्य कहा नहीं जा सकता" महावीर ने कहा, “सत्य नहीं कहा जा सकता। यह जितना वास्तविक है उतना ही वास्तविक यह है कि सत्य कहा जा सकता है। वस्तुजगत में पूर्ण सामंजस्य और सह अस्तित्व है। विरोध की कल्पना हमारी बुद्धि ने की है। उत्पादन और विनाश, जन्म और मौत, शाश्वत और अशाश्वत सब साथ-साथ चलते हैं।"
भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम ने एक बार पूछा :गौतम : भन्ते! सत्य क्या है? महावीर : वह बताया नहीं जा सकता। गौतम : तो हम उसे कैसे जानें? महावीर : तुम स्वयं उसे खोजो गौतम : उसकी खोज कैसे करें? महावीर : कर्म को छोड़ दो, मन को विकल्पों से मत भरो, मौन रखो।
शरीर को स्थिर रखो।
वाचक : महावीर न सिर्फ दार्शनिक थे और न कोरे धार्मिक। वे दर्शन
और धर्म के समन्वयकार थे। उन्होंने सत्य को देखा, फिर चेतना के विकास के लिए अनाचरणीय का संयम और आचरणीय
का आचरण किया। महावीर : "अकेला ज्ञान, अकेला दर्शन (भक्ति) और अकेला पुरुषार्थ
(कर्म) मनुष्य को दुःख मुक्ति की ओर नहीं ले जाता। ज्ञान, दर्शन और आचरण का समन्वय ही उसे दुख मुक्ति की ओर ले जाता है। ...पहले जानो, फिर करो। ज्ञानहीन कर्म और कर्महीन ज्ञान ये दोनों व्यर्थ हो जाते हैं। ज्ञान सत्य का आचरण
और आचरित सत्य का ज्ञान ये दोनों एक साथ होकर ही सार्थक
होते हैं..." वाचक : महावीर श्रद्धा को ज्ञान और आचार का सेतु समझते थे। महावीर : जिसको ज्ञान हो जाये उसके प्रति श्रद्धा करनी चाहिए, श्रद्धा
अज्ञान का संरक्षण नहीं करती, वह ज्ञान को आचरण तक ले जाती है। ज्ञान दुर्लभ है और श्रद्धा उससे भी दुर्लभ और आचरण उससे भी दुर्लभ । ज्ञान के परिपक्व होने पर श्रद्धा सुलभ होती
है और श्रद्धा के सुलभ होने पर आचरण सुलभ होता है। वाचिका : उन्होंने बताया कि ज्ञान का मूल स्रोत मनुष्य है। आत्मा से
भिन्न कोई परमात्मा नहीं है। उनके दर्शन में स्वत: प्रामाण्य शास्त्र का नहीं है, मनुष्य का है। वीतराग मनुष्य प्रमाण होता है और
अन्तिम प्रमाण उसकी वीतराग दशा है। वाचक : वे अनेकात्मवादी थे। भगवान के अनुसार आत्माएं अनन्त हैं।
प्रत्येक आत्मा दूसरी आत्मा से स्वतंत्र है। सब आत्माओं में चैतन्य है पर वह सामुदायिक नहीं है। जैसे आत्माएं अनेक हैं वैसे ही योनियां भी अनेक हैं। उस काल में मनुष्य ब्राह्मण,क्षत्रिय,
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ५०
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