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की यह यथार्थवादी दृष्टि स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ___ जीवन के जिस यथार्थ को प्रेमचंद या नागरजी ने अपने उपन्यासों में प्रतिष्ठित किया वह स्वयं इन लेखकों का भोगा हुआ यथार्थ था। प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य को राजा-रानियों, राजकुमारों-जमींदारों-कुलीनों के एक छत्र नायकत्व से निकाला और होरी, घीसू, धनिया, सिलिया, सूरदास को जनगण का प्रतिनिधि समझकर उन्हें कथानायक बनाया। वास्तव में उनकी यही समझ उन्हें दीन-हीन, दलित और संघर्षशील नरनारियों की सहानुभूति से जोड़ सकी और समाज के पीड़ित, वंचित वर्ग का यथार्थ अपने वास्तविक रूप में पाठकों तक पहुंच सका। प्रेमचंद की इसी संवेदनशीलता ने उन्हें शीर्ष स्थान पर प्रतिष्ठित किया है। __अपने यथार्थ चित्रण में प्रेमचंद ने कभी कथा-शिल्प के चमत्कार की चाह नहीं की- सरल, सहज ढंग से अपनी कथा कहने में ही उनका दृढ़ विश्वास बना रहा। आलोचकों का एक वर्ग इसे भले ही प्रेमचंद की कमजोरी मानता हो, परन्तु वास्तव में यही सहजता प्रेमचंद की शक्ति थी। प्रेमचंद की कृतियों में किस्सागोई पद्धति का परिष्कृत रूप परिलक्षित होता है। अपने एक निबंध "युग प्रवर्तक प्रेमचंद' में नागरजी ने लिखा है- "मुंशी प्रेमचंद आधुनिक युग के यथार्थवादी कथालेखक होते हुए भी, विदेशी कहानियों के अध्ययन से प्रभावित होकर भी दरअसल ये पुरानी भारतीय परम्परा के किस्सागोई ही। ...उनके कथा कहने का ढंग उतना ही सरल है, जितना कि एक था राजा, एक थी रानी वाली कहानी का ढंग होता है।" (साहित्य और संस्कृति पृष्ठ-29)। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि प्रेमचंद को प्रसिद्धि शिल्प के वैशिष्ट्य या यूरोपीय चिंतन की बड़ी-बड़ी बातें करने के कारण नहीं मिली, बल्कि लोक-जीवन से तादात्म्य स्थापित कर उसकी दृष्टि और व्यथा को अभिव्यक्त करने के कारण वे लोकप्रिय हुए।
इसी धरातल पर अमृतलाल नागर के उपन्यासों का विवेचन यह प्रमाणित करता है कि नागरजी में किस्सागोई प्रवृत्ति, यथार्थ चित्रण की अद्भुत क्षमता तथा पीड़ित, वंचित वर्ग की पीड़ा को संवेदना के साथ व्यक्त करने का गुण प्रेमचंद की ही भांति पाया जाता है। अंतर केवल इतना है कि प्रेमचंद के पात्र यदि ग्रामीण जीवन के हैं तो नागरजी के अधिकांश पात्र शहरी मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नागरजी के अधिकांश उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। इसी कारण स्वतंत्र भारत के मध्यवर्ग की पीड़ा नागरजी के सामाजिक उपन्यासों में मुखरित हुई है। राजेन्द्र यादव ने इस मध्यवर्ग के बारे में लिखा है "स्वतंत्रता के बाद, पहली बार सच्चे अर्थों में हमारे समाज में एक विशाल मध्यवर्ग ने अपना वास्तविक आकार ग्रहण किया है। ...जो कहीं भी अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाता। कोई शहर उनका अपना नहीं है, कोई संबंध उनका अपना नहीं है, उनकी जड़ें न पीछे खेत-खलिहान में है, न किसी संयुक्त परिवार में। उनका एकमात्र साधन नौकरी है
और एकमात्र भय बेकारी।" (प्रेमचंद की विरासत, पृष्ठ 12) यह मध्यवर्ग मानो सब कुछ भोगने, बर्दाश्त करने के लिए अभिशप्त है।
नागरजी का लालन-पालन इसी मध्यवर्गीय परिवेश में हुआ था। नगर अंचल का यह मध्यवर्ग- उच्च मध्यवर्ग तथा निम्न मध्यवर्ग, दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। नागरजी मध्यवर्ग की दोनों कोटियों से जुड़े रहे हैं। लखनऊ के चौक क्षेत्र में रहते हुए वे इस वर्ग के गुण-अवगुण, सुख-दुख, बोली-बानी, परिवेश-संस्कार, क्षमता-अक्षमता, मान्यता विरोध सभी से भलीभांति परिचित रहे हैं। इस क्षेत्र के जीवन को उन्होंने निकट से देखा है, भोगा है तथा उन्हें यहां के व्यक्तियों की विस्तृत, सूक्ष्म सभी जानकारी रही है। यही कारण है कि उनके अधिकांश उपन्यासों का परिवेश लखनऊ का यही चौक क्षेत्र रहा है।
नागरजी के ऐतिहासिक उपन्यास विशेषत: अवध के इतिहास से संपृक्त रहे हैं। इस कारण इन कृतियों में देश-काल वातावरण सजीवता के साथ प्रस्तुत हो सका है। अवध प्रदेश की राजधानी लखनऊ को केन्द्र में रखकर नागरजी ने नवाबी शासन की ऐतिहासिक घटनाओं को आकर्षक ढंग से अपने उपन्यासों में वर्णित किया है। सांस्कृतिक, पौराणिक या ऐतिहासिक उपन्यासों में भी, जहां पात्रों का वैविध्य दिखाई पड़ता है, उनका किस्सागो रूप प्रमुख है। यथार्थ चित्रण तथा छोटे-छोटे पात्रों से भी आत्मीय संबंध स्थापित करके उन्हें प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की उनकी प्रवृत्ति उनके उपन्यासों में परिलक्षित होती है। नागरजी में ये समस्त गुण प्रेमचंद के समान ही हैं। परन्तु प्रेमचंद की परम्परा का अनुगमन करते हुए नागरजी में कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं भी दिखाई पड़ती हैं।
अमृतलाल नागर का जो वैशिष्टय सहज ही परिलक्षित होता है, वह है शिल्प या तकनीक के प्रति उनका आकर्षण। नागरजी ने अपने कई उपन्यासों में कथानक संबंधी नवीन प्रयोग किये हैं। “सेठ बांकेमल', "अमृत और विष", "मानस का हंस", "नाच्यो बहुत गोपाल' जैसे उपन्यास इसके उदाहरण हैं। कथ्य संबंधी नवीन और साहस पूर्ण प्रयोगों के साथ-साथ भाषा की जैसी बहुरंगी छटा नागरजी की कृतियों में दिखाई पड़ती है, वैसी प्रेमचंद में नहीं है। नागरजी के भिन्न-भिन्न पात्र अपने भाषिक वैविध्य के कारण आकर्षक लगते हैं। पात्र निर्माण के क्रम में नागरजी ने यथार्थ जगत के वास्तविक व्यक्तियों का गहराई से अध्ययन किया है और अपनी कृति के पात्रों में उनका समावेश कर दिया है। कभी-कभी उन्होंने वास्तविक जगत के दो या तीन चरित्रों के वैशिष्ट्य को अपने एक ही पात्र में आरोपित कर उसे आकर्षक एवं अविस्मरणीय बना दिया है। परकाया प्रवेश में निपुण होने के कारण लेखक के ये अमूर्त पात्र में भी आत्मीयता ही रही है। पांचू, मोनाई, सेठ बांकेमल, ताई, महिपाल, अरविन्द शंकर, पुत्तीगुरू, निर्गुण, गुरसरन बाबू, तथा तनकुन जैसे पात्र इसीलिए पाठकों को प्रभावित करते हैं। पात्रों के चित्रण में सूक्ष्मता भी नागरजी का अपना वैशिष्ट्य है।
प्रेमचंद की कृतियों में व्यंग्य का पैनापन परिलक्षित नहीं होता परन्तु अमृतलाल नागर ने अपनी कृतियों में हास्य व्यंग्य का समावेश बड़ी दक्षता के साथ किया है। नागरजी में और प्रेमचंद में बड़ा अन्तर आध्यात्मिक
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ३७
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