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प्रो. सागरमल जैन लिखते हैं, "यह सुनिश्चित सत्य है कि यह ग्रन्थ जैन धर्म एवं संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था। इस ग्रन्थ के अध्ययन से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था । ' सुप्रसिद्ध जैन मनीषी श्री जोहरीमलजी पारख के अनुसार इस प्रकीर्णक की प्राचीनता एवं विषयवस्तु आदि की दृष्टि से बहुत महत्ता है। इसके स्वयं के संदर्भों के बल पर यह प्रकीर्णक आगम में शुमार होने योग्य
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विषय वस्तु की दृष्टि से सर्वाधिक आठ प्रकीर्णक समाधिमरण से संबंधित हैं, यथा ( 1 ) महाप्रत्याख्यान (2) आतुरप्रत्याख्यान (3) मरण विभक्ति ( 4 ) मरणसमाधि ( 5 ) मरणविशुद्धि (6) संलेखनात (7) भक्तपरिज्ञा और (8) आराधना ।
समाधिमरण से संबंधित इन सभी ग्रन्थों को एक ग्रन्थ में समाहित करके उसे "मरणविभक्ति" नाम दिया गया है। उपलब्ध मरणविभक्ति में महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान आदि उपरोक्त आठ प्रकीर्णक ग्रन्थ समाहित हैं। इन आठ ग्रन्थों में से मरणविभक्ति, मरणसमाधि, संलेखना श्रुत, भक्त परिज्ञा, आतुर प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान इन ग्रन्थों के नाम हमें नन्दीसूत्र मूल और उसकी चूर्णी में मिलते हैं।" किन्तु शेष दो ग्रन्थों- मरणविशुद्धि और आराधना के नाम नन्दीसूत्र मूल और उसकी चूर्णी में उपलब्ध नहीं हैं। समाधिमरण का विवेचन करने वाले इन प्रकीर्णक ग्रन्थों में रागात्मकता एवं आसक्ति त्याग पर विशेष बल दिया गया है। ये समस्त प्रकीर्णक समाधिपूर्वक मरण करने की प्रक्रिया एवं उसके महत्व का प्रतिपादन करते हैं। साधक को समाधिमरण की स्थिति में अपनी मनोवृत्तियों को किस प्रकार रखना चाहिए, इसका भी इनमें सुन्दर विवेचन हुआ है।
चन्द्रकवेध्यक प्रकीर्णक अध्यात्म साधना प्रधान प्रकीर्णक है। इसमें मुख्य रूप से गुरु-शिष्यों के संबंधों एवं शिष्यों को वैराग्य की दिशा में प्रेरित करने वाली उपदेशात्मक गाथाओं का संकलन है।
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देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक अध्यात्मपरक अथवा आचारपरक न होकर स्तुतिपरक ग्रन्थ है देवलोक एवं देवनिकाय की जानकारी कराने वाला यह प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें जैन खगोल एवं भूगोल का भी आंशिक विवरण प्राप्त होता है।
मानुषोत्तर पर्वत के आगे स्थित द्वीप समुद्रों का सांगोपांग एवं सुव्यवस्थित विवरण द्वीपसागर प्रज्ञप्ति प्रकीर्णक में उपलब्ध होता है। जैन परम्परा में जगत की संरचना संबंधी जानकारी कराने वाला यह एक मात्र पद्यात्मक ग्रन्थ है।
तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक में मानव जीवन के विविध पक्षों, यथागर्भावस्था, मानव शरीर रचना, उसकी सौ वर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें होने वाली शारीरिक क्रियाएं एवं उसके आहार आदि का पर्याप्त विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ में शारीरिक विकृतियों के साथ ही नारी चरित्र की विकृतियों को भी उभार कर प्रस्तुत किया गया है, ताकि व्यक्ति का उनके प्रति रागभाव एवं आसक्ति समाप्त हो । प्रस्तुत ग्रन्थ
हीरक जयन्ती स्मारिका
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के ग्रन्थकार की नारी निन्दा के पीछे मूलभूत दृष्टि मनुष्य की कामासक्ति को समाप्त करना है वहां नारी निन्दा, निन्दा के लिए नहीं है, अपितु मनुष्य को अध्यात्म और वैराग्य की दिशा में प्रेरित करने के लिए ही है।
महानिशीथसूत्र, वृहत्कल्पसूत्र तथा व्यवहार सूत्र आदि छेदसूत्रों के आधार पर रचित गच्छाचार प्रकीर्णक में साधु-साध्वियों के गच्छ की आचार परम्परा का विस्तारपूर्वक विवेचन हुआ है। ग्रन्थ में आचार्य, साधु और साध्वी ऐसे तीन भागों में उनकी योग्यता और गुणों का सांगोपांग वर्णन किया गया है।
गणिविद्या प्रकीर्णक में दिवस, तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त, शकुल एवं ज्योतिष व निमित्त आदि का विवेचन किया गया है। ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक में भी गणित ज्योतिष की अति प्राचीन व मौलिक सामग्री उपलब्ध है । इस प्रकार प्रत्येक प्रकीर्णक प्राय: सुसंहत विशिष्ट विषय-वस्तु वाला है।
प्रकीर्णक ग्रन्थों की विषय-वस्तु का श्वेताम्बर परम्परा मान्य आगम ग्रन्थों एवं दिगम्बर परम्परा मान्य शौरसेनी साहित्य से तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि इसमें उपलब्ध होने वाली समान गाथाएं प्रकीर्णक साहित्य से आगम, नियुक्ति तथा यापनीय परम्परा मान्य मूलाचार व भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में गई है अथवा उनमें से ये गाथाएं प्रकीर्णक ग्रन्थों में ली गई हैं ? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दे पाना एक जटिल समस्या है।
आगम ग्रन्थों में जहां प्रकीर्णक साहित्य की गाथाएं मूल अंग के रूप में ही प्रतीत होती है। वहां इस संभावना से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि वहीं से ये गाधाएं प्रकीर्गकों में गई हो किन्तु उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा तथा अनुयोग द्वार आदि आगम ग्रन्थों में प्रकीर्णक ग्रन्थों की कुछ गाधाएं ऐसी मिलती हैं जो यहां अन्यत्र से उद्धृत की गई ही लगती हैं, क्योंकि वहां वह ग्रन्थ या ग्रन्थांश गद्य रूप में है और ये गाथाएं पद्य रूप में है, इसलिए उन गाथाओं को वहां उद्धृत मानना समीचीन होगा।
जहां तक नियुक्ति साहित्य में उपलब्ध होने वाली प्रकीर्णक ग्रन्थों की समान गाथाओं का प्रश्न है, हमें सर्वप्रथम यह निर्णय करना पड़ेगा कि नियुक्तियों का रचनाकाल कब का है? यदि नियुक्तियों को द्वितीय भद्रबाहु की रचना माना जाए तब तो संभावना बनती है कि ये गाथाएं प्रकीर्णक साहित्य से उनमें गई होंगी, किन्तु विद्वानों ने यह माना है कि कुछ निर्युक्तियां प्राचीन हैं और वे प्रथम भाद्रबाहु की ही रचना हैं। ऐसी स्थिति में एक संभावना यह भी बन सकती है कि समान उपलब्ध होने वाली गाथाएं नियुक्तियों से प्रकीर्णकों में गई हों।
प्रकीर्णक साहित्य में कई ऐसी गाथाएं हैं, जो समान रूप से भिन्न-भिन्न प्रकीर्णकों में उपलब्ध होती हैं। इन समान गाथाओं की प्राप्ति के आधार पर यह निर्णय कर पाना कठिन है कि कौन-सी गाथा किस प्रकीर्णक से किस प्रकीर्णक में गई है।
जहां तक मूलाचार और भगवती आराधना जैसे ग्रन्थों का प्रश्न है,
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विद्वत् खण्ड / २५
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