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भारत की प्राचीन आर्यभाषाओं के पंडित थे। आकर ग्रन्थों को पढ़ा था। धर्म और संस्कृति का अध्ययन किया था। इसके अलावा देश-विदेश की और भी कई भाषाओं को जानते थे। इतिहास में रुचि थी, इतिहास लेखक भी थे। ऋगवैदिक आर्य, अकबर, मध्य एशिया का इतिहास, कई महापुरुषों की जीवनियां, पुरातात्विक निबन्ध उनके इतिहास प्रेम के प्रमाण हैं। भारतीय मनीषा की उपलब्धियों पर राहुल को गर्व था, किन्तु झूठे दम्भ के वे कटु आलोचक थे।
राहुलजी भी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ही तरह आज के प्रचलित इतिहास को इतिहास नहीं मानते थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी इतिहास के संबंध में प्रश्न उठाकर कहा था कि स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास इतिहास नहीं है। राहुल 'जन-इतिहास' के पक्षधर थे। उन्होंने लिखा है कि, “हमारा इतिहास तो राजाओं और पुरोहितों का इतिहास है जो कि आज की तरह उस जमाने में भी मौज उड़ाया करते थे। उन अगणित मनुष्यों का इस इतिहास में कहां जिक्र है, जिन्होंने कि अपने खून के गारे से ताजमहल और पिरामिड बनाये, जिन्होंने कि अपनी हड्डियों की मज्जा से नूरजहां को अतर से स्नान कराया, जिन्होंने कि लाखों गर्दन कटाकर पृथ्वीराज के रनिवास में संयोगिता को पहुंचाया? उन अगणित योद्धाओं की वीरता का क्या हमें कभी पता लग सकता है जिन्होंने कि सन् सत्तावन के स्वतंत्रता युद्ध में अपनी आहुतियां दी? दूसरे मुल्क के लुटेरों के लिए बड़े-बड़े स्मारक बने, पुस्तकों में उनकी प्रशंसा का पुल बांधा गया। गत महायुद्ध में ही करोड़ों ने कुर्बानियां दी, लेकिन इतिहास उनमें से कितनों के प्रति कृतज्ञ है? (तुम्हारी क्षय पृ0 31-32)
राहुल जन-इतिहास चाहते थे, किन्तु इतिहास का झूठा दंभ उन्हें पसन्द नहीं था। हर दृष्टि से भारत को सबसे गौरवशाली सिद्ध करने की झोंक राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान दिखाई पड़ी थी और आज भी कुछ अतिरिक्त परम्परा प्रेमियों में यह झोंक विद्यमान है जिसकी एक तर्कसंगत परिणति फासिज्म में होती है। इतिहासाश्रयी इस राजनीतिक चिन्ताधारा से राहुल सजग थे। इतिहास की विकृत व्याख्या उन्हें पसन्द नहीं थी। इस झोंक का विरोध करते हुए उन्होंने लिखा है कि, "जिस जाति की सभ्यता जितनी पुरानी होती है उसकी मानसिक दासता के बन्धन भी उतने ही अधिक होते हैं। भारत की सभ्यता पुरानी है, इसमें तो शक ही नहीं और इसलिए इसके आगे बढ़ने के रास्ते में रुकावटें भी अधिक हैं। मानसिक दासता प्रगति में सबसे अधिक बाधक होती है। ...वर्तमान शताब्दी के आरम्भ में भारत में राष्ट्रीयता की बाढ़ सी
आ गई, कम से कम तरुण शिक्षितों में। यह राष्ट्रीयता बहुत अंशों में श्लाध्य रहने पर भी कितने अंशों में अंधी राष्ट्रीयता थी। झूठ सच जिस तरीके से भी हो, अपने देश के इतिहास को सबसे अधिक निर्दोष और गौरवशाली सिद्ध करने अर्थात् अपने ऋषि मुनियों, लेखकों और विचारकों, राजाओं और राजसंस्थाओं में बीसवीं शताब्दी की बड़ी से बड़ी राजनैतिक महत्व की चीजों को देखना हमारी इस राष्ट्रीयता का एक अंग था। अपने भारत को प्राचीन भारत और उसके निवासियों को हमेशा दुनिया के सभी राष्ट्रों से ऊपर साबित करने की दुर्भावना से प्रेरित हो हम जो कुछ भी अनाप-शनाप ऐतिहासिक खोज के नाम पर लिखें, उसको यदि
पाश्चात्य विद्वान न माने तो झट से फतवा पास कर देना कि सभी पश्चिमी ऐतिहासिक अंग्रेजी और फ्रांसीसी, जर्मन और इटालियन, अमेरिकन और रूसी, डच और चेकोस्लाव सभी बेईमान हैं। सभी षड्यंत्र करके हमारे देश के इतिहास के बारे में झूठी-झूठी बातें लिखते हैं। वे हमारे पूजनीय वेद को साढ़े तीन और चार हजार वर्षों से पुराना नहीं होने देते (हालांकि वे ठीक एक अरब बानवे वर्ष पहले बने थे)। इन भलमानसों के ख्याल में आता है कि अगर किसी तरह से हम अपनी सभ्यता, अपनी पुस्तकों और अपने ऋषि मुनियों को दुनिया में सबसे पुराना साबित कर दें, तो हमारा काम बन गया। इस बेवकूफी का भी कहीं ठिकाना है कि बापदादों के झूठ-मूठ के ऐश्वर्य से हम फुलें न समायें और हमारा आधा जोश उसी की प्रशंसा में खर्च हो जाय।"
(दिमागी गुलामी) ___ हमने ऊपर चर्चा की है कि राहुल का इतिहास और परम्परा प्रेम अंध राष्ट्रीयता पर आधारित नहीं था। उनका कथन था, "अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार होना चाहिए।" राहुल की ऐतिहासिक अवधारणा वैज्ञानिक थी। आज की इतिहास चर्चा के संदर्भ में यह अवधारणा अधिक उपयोगी है। राहुलजी संस्कृत, पालि, प्राकृत, अप्रभंश के पंडित थे। उन्होंने इन भाषाओं के आकर ग्रन्थों का अध्ययन कर ऋगवैदिक आर्य, बोल्गा से गंगा, सिंह सेनापति तथा जय यौधेय, दिवोदास जैसे ग्रन्थ लिखे, जिनमें प्राचीन भारत की संस्कृति का चित्र मिलता है।
इतिहास की ही तरह ईश्वर और धर्म के बारे में भी उनकी अवधारणा थी। भारतीय इतिहास में आज ईश्वर और धर्म को अहम मुद्दा बना दिया गया है। राहुल विकासवाद के सिद्धांत को मानने वाले थे। अतएव ईश्वर और धर्म संस्थानों के बारे में वे मौलवादियों से एकदम भिन्न थे। उनकी इन धारणाओं पर विचार करते समय उनके चिन्तन के विकास-क्रम को ध्यान में रखना होगा। बचपन में सनातनी हिन्दू संस्कारों में पले राहुल किस प्रकार आर्य समाज, बौद्ध धर्म फिर साम्यवाद की
ओर बढ़ते गये और अन्त में कम्युनिस्ट की हैसियत से मरे। यह सब उनकी मानसिकता का बेरोमीटर है। आत्मवाद से अनात्मवाद की ओर उनकी दार्शनिक परिणति है। जिसका ठेठ अर्थ है कि राहुल सांकृत्यायन भारतीय लोकायत दर्शन परम्परा के मनीषी थे।
प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति का यह कथन उन्हें बहुत प्रिय था :वेद प्रामाण्यं कस्यचित् कर्तृवादः स्नानेधर्मेच्छा जाति वादाय लेपः। संतापारंभः पापहानायचेतिध्वस्तप्रज्ञा नां पंचलिंगा नि जाड्ये॥
(प्रमाण वार्तिक स्ववृत्ति 1/342) "वेद (ग्रंथ) को प्रमाणता किसी (ईश्वर) का (सृष्टि) कर्तापन (=कर्तृवाद), स्नान (करने) में धर्म (होने) की इच्छा रखना जातिवाद (=छोटी-बड़ी जाति पांति) का घमंड और पाप दूर करने के लिए (शरीर को) संताप देना (उपवास तथा शारीरिक तपस्याएं करना) - ये पांच हैं अकल मारे (लोगों) की मूर्खता (=जड़ता) की निशानियां।"
दर्शन - दिग्दर्शन - पृ0 803-4 प्र0 संस्करण,
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / २१
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