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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि है पाप का वातावरण है आतंक का वातावरण है वहां शांति की कल्पना सिर्फ धर्म से ही हो सकती है। श्री सुमनमुनिजी कहते हैं कि हम धर्म को व्यापार बुद्धि से करते हैं। किस काम में फायदा ज्यादा है वह करते हैं परंतु धर्म में स्वार्थ नहीं होना चाहिए। जहां कामना/इच्छा अथवा बदले में कुछ पाने की भावना रहेगी तब वह व्यापार हो जायेगा। हो सकता है उसमें आपको लाभ भी हो जाय । ज्ञान गर्भित वैराग्य प्राप्त करो - आज हम सभी तर्क करते हैं और ज्ञान को कसौटी पर कसना चाहते हैं वह ज्ञान है कहां ? संतों के उपदेश सुनते हैं तत्काल भावना जागृत होती है । व मन का झुकाव धर्म की ओर जुड़ता है परंतु उसका स्थायित्व नहीं है । आज जो भी वैराग्य का कारण है वह मोहगर्भित या दुखगर्भित वैराग्य है । मोहगर्भित वैराग्य व्यक्ति के प्रति मोह में वशीभूत होकर धर्मध्यान करता है। दुःखगर्भित वैराग्य में दुःखों से घबराकर अथवा दुःख गर्भित वैराग्य है । ज्ञानगर्भित वैराग्य अथवा त्याग की भावना जो धर्म के मार्ग को समझकर एवं संसार की असारता को समझकर जागृत होती है वह ज्ञानगर्भित वैराग्य है। जहां सब कुछ होते हुए छोड़ने की भावना होती है आसक्ति एवं ममत्व कम होता है । उस अवस्था में 'सुख या दुख आने पर आत्मा शांत भाव से परिस्थिति को सहन करती है वह है -- ज्ञान गर्भित वैराग्य ! यह अवस्था साधु व श्रावक दोनों में हो सकती है । जीवन का आर्थिक विकास जरूरी है परंतु जीवन का ध्येय नहीं । ध्येय तो सिर्फ आत्मकल्याण है । और उसके लिए आत्मज्ञान की जरूरत है। मुनिश्री ने प्रवचन के मध्य में कथा के माध्यम से उपर्युक्त विषय को और अधिक स्पष्ट किया। एक नगर में चार महापंडित रहते थे उनमें से एक आयुर्वेद शास्त्र का, दूसरा धर्मशास्त्र का, तीसरा नीतिशास्त्र का व चौथा कामशास्त्र का ज्ञाता था। चारों ने अपने-अपने विषय पर ४० Jain Education International एक एक महान ग्रंथ रचने का संकल्प किया और एक-एक लाख श्लोक एक-एक विषय पर लिखें । पुराने जमाने में विद्वानों की बहुत बड़ी कद्र होती थी एवं राजसभा में विशेष सम्मान पाते थे तो उन्होंने सोचा कि किसी कद्रदानी राजा को अपने ग्रंथ दिखाएं और उससे यदि राजा प्रसन्न होकर इनाम दें तो जीवनभर की चिंता मिट सकती है क्योंकि उनके भी पेट होता है, परिवार होता है एवं संसार व्यवहार चलाना पड़ता है। उन दिनों राजा जितशत्रु विद्वानों का बड़ा आदर करता था और इसी आशा में विद्वान राजा के पास गये और कहा कि हमने एक-एक विषय पर एक-एक लाख श्लोकों की रचना की है उसे आप सुनिये ! राजा ने कहा कि आपको धन्य है, परंतु मेरे पास इतना समय नहीं कि लाख लाख श्लोक सुनूं, कृपया आप संक्षेप में कहें। विद्वानों ने कहा कि आप पच्चीस हजार श्लोक सुनिए बाद में पांच हजार - एक हजार, पांच सौ, दस, पांच व एक श्लोक पर आए तो भी राजा सुनने को तैयार नहीं हुआ। अंत में विद्वानों ने कहा कि श्लोक के एक-एक चरण में विषय का सार सुना देंगे तब जाकर राजा सुनने को तैयार हुआ । आयुर्वेद के पंडित ने कहा - " जीर्णे भोजनमात्रेय " दूसरे धर्मशास्त्र के पंडित के अनुसार “ कपिल प्राणीनां दयाः” तीसरे ने कहा “वृहस्पति विश्वास" एवं चौथे ने कहा पांचाल स्त्रीषु मार्दवम् । अर्थात् आयुर्वेद के पंडित के अनुसार पहले वाला भोजन पचने के बाद दूसरा भोजन करना चाहिए जिससे व्यक्ति स्वस्थ एवं दीर्घायु होगा । अर्थात् भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए। धर्मशास्त्र के पंडित के अनुसार महर्षि कपिल ने प्राणिमात्र पर दया रखने को कहा है, इससे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। नीतिशास्त्र तो बहुत रचे गये परंतु वृहस्पति के अनुसार जीवन में वही सफल होता है जो किसी पर अंधविश्वास For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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