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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
संग्रह, परिग्रह, शोषण करता है, स्वास्थ्य के लिये हानि कारक वस्तुओं का उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में हानिप्रद नकली वस्तुएँ मिलाता है कई प्रकार के प्रदूषणों को जन्म देता है। वर्तमान में विश्व में जितने भी प्रदूषण दिखाई देते हैं इन सबके मूल में भोग लिप्सा व लोभ वृत्ति ही मुख्य है ।
जब तक जीवन में भोग-वृत्ति की प्रधानता रहेगी तब तक भोग सामग्री प्राप्त करने के लिये लोभ वृत्ति भी रहेगी। कहा भी है कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहाँ लोभ होता है वहाँ पाप की उत्पत्ति होगी ही । पाप प्रदूषण पैदा करेगा ही । अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों . का त्याग ही जैन धर्म की समस्त साधनाओं का आधार व सार है । पापों से मुक्ति को ही जैन धर्म में मुक्ति कहा है । अतः जैन धर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषणों ( दोषों) को दूर करने की साधना है । जैन धर्म में अनगार एवं आगार ये दो प्रकार के धर्म कहे हैं। अनगार धर्म के धारण करने वाले साधू होते हैं जो पापों के पूर्ण त्याग की साधना करते हैं । आगार धर्म के धारण करने वाले गृहस्थ होते हैं उनके लिये बारह व्रत धारण करने, तपस्या, कुव्यसनों के त्याग का विधान किया गया है । यही आगार धर्म प्रदूषणों से बचने का उपाय है। इसी परिपेक्ष्य में यहाँ बारह व्रतों का विवेचन किया ज रहा है:
(१) स्थूल प्राणातिपात का त्याग
प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी भी प्राणी के प्राणों का घात हो । प्राण दश कहे गये हैं ।
न्द्रिय वल प्राण २. चक्षु इन्द्रिय बल प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय बल प्राण ४. रसनेन्द्रिय बल प्राण ५. स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण ६. मन बल प्राण ७. वचन बल प्राण ८. कायबल प्राण ६. श्वासोश्वास बल प्राण और १०. आयुष्य बल प्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को आघात
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लगे, हानि पहुँचे वह प्राणातिपात है। वह प्राणातिपात प्राणी का ही अर्थात् चेतना का ही होता है निष्प्राण अचेतन का नहीं। क्योंकि अचेतन (जड़) जगत् पर प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य किसी भी प्रकार का प्रदूषण का कोई भला-बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है न उसे सुख
दुख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध प्राणी से ही है । इस प्रकार के प्रदूषण से प्राणी के ही प्राणों का अतिपात होता है । प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण कहा जाता है अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है, प्राणातिपात बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात बचना है।
जैन धर्म में समस्त पापों का, दोषों का प्रदूषणों का मूल प्राणातिपात को ही माना है । अब यह प्रश्न पैदा होता है कि प्राणी प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करता है ? उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है इससे उसे चलना, फिरना, बोलना, खाना, पीना, मल विर्सजन आदि कार्य व क्रियाएँ करनी होती परन्तु इन सब क्रियाओं से प्रकृति का सहज रूप में उपयोग करे तो न तो प्रकृति को हानि पहुँचती है और न प्राण शक्ति का हास होता है इससे प्राणी का जीवन तथा प्रकृति का संतुलन बना रहता है । यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं परन्तु प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा। पर जब प्राणी के जीवन का लक्ष्य सहज प्राकृतिक / स्वाभाविक जीवन से हटकर भोग भोगना हो जाता है तो वह भोग के सुख के वशीभूत हो अपने हित-अहित को, कर्तव्यअकर्तव्य को भूल जाता है । वह भोग के वशीभूत हो वह कार्य भी करने लगता है जिसमें उसका स्वयं का ही अहित हो । उदाहरणार्थ- किसी भी मनुष्य से कहा जाय कि तुम्हारी आँखों का मूल्य पाँच लाख रुपये देते हैं तुम अपनी दोनों आँखों को हमें बेच दो तो कोई भी आँखें बेचने को तैयार नहीं होगा । अर्थात् वह अपनी आँखों को
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