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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि केवल आवश्यक है अपितु अनिवार्य भी है। निमित्त अपने स्थान पर महत्व रखता है और उपादान का भी अपना महत्व है। अन्ततः इन दोनों सतियों ने समग्र कर्मों का समूलतः नाश कर निर्वाण पद की प्राप्ति की। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक की चूर्णि में राजमति के अडिग संकल्प और दिव्यशील का वर्णन भी आया है। भगवान् महावीर स्वामी के शब्दों में राजुल के उपदेश से रथनेमि सत्पथ पर वैसे ही चल पड़ते है, जैसे उत्पथगामी मस्त हस्ती अंकुश से नियंत्रित हो जाता है - अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइओ। इसके अतिरिक्त साध्वी मृगावती ने अपनी भूल पर पश्चाताप करते हुए अपनी गुरुवर्या चन्दनबाला से पूर्व ही केवलज्ञान प्राप्त किया। साध्वीरला प्रभावती, दमयंती, कुंती, पुष्पचूला, शिवा, सुलसा, सुभद्रा, मदनरेखा, पद्मावती का जीवन भी नारी गरिमा का जीवंत एवं ज्वलंत उदाहरण नारी : उद्बोधकरूपा ___भगवान् ऋषभदेव ने नारी के उत्थान हेतु जिन चौसठ कलाओं की स्थापना की है, उनमें दोनों आजन्म कुमारियाँ निष्णात थी। उक्त दोनों ने समय अंगीकार कर स्वयं का कल्याण किया और साथ ही बाहुबलि को भी वास्तविकता का परिबोध देकर लाभान्वित किया - आज्ञापयाति तातस्त्वां ज्येष्ठार्य! भगवनिदम् । हस्ती स्कन्ध रूढानाम्, केवलं न उत्पद्यते।। हे ज्येष्ठार्य ! भ. ऋषभदेव का सामयिक उपदेश है कि हाथी पर बैठे साधक को केवलज्ञान – दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है। राजस्थानी भाषा में - वीरा म्हारा गज थकी उतरो । गज चढ़िया केवल न होसी ओ.......।। बाहुबलि मुनि के कर्ण-कुहरों मे दोनों श्रमणियों की मधुर हितावही स्वरलहरी पहुँची; तत्काल मुनिवर सावधान होकर चिंतन करने लगे – “यह स्वर बहिन श्रमणियों का है। इनकी वाणी में भावात्मक यथार्थता है। मैं अभिमानरूप हाथी पर बैठा हूँ। मस्तक मुंडन जरूर हुआ पर अभी तक मान का मुडंन नहीं किया। मुझे लघुभूत बनना चाहिये। अपने से पूर्व दीक्षित आत्माओं का मैंने अविनय किया हैं। मैं अपराधी हूँ। मुझे उनके चरणों में जाकर सवंदन क्षमापना करना चाहिये।" इस तरह विचारों को क्रियान्वित करने हेतु कदम बढ़ाया। बस, देर नहीं लगी, केवलज्ञान - केवलदर्शन पा लिया - बाहुबलि मुनि ने। यदि ब्राह्मी और सुंदरी उन्हें सचेत नहीं करती, संक्षिप्त पर सारपूर्ण उद्बोधन नहीं देती, उनके मिथ्याभ्रम की ओर ध्यान केंद्रित नहीं कराती तो क्या उन्हें केवलज्ञान हो पाता? उक्त कथानक से यह सुस्पष्ट है कि इन दोनों बहनों के निमित्त से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ क्योंकि उपादान के लिए निमित्त का होना न यद्यपि पुरुषों में ऐसे महान् पुरुष हुए हैं अथवा हैं, जिन्होंने समाज/राष्ट्र एवं विश्व की शान्ति में योगदान दिया है, किंतु पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में ये गुण अपेक्षाकृत अधिक विकसित है। देखा गया है कि पुरुषों की अपेक्षा मातृजाति में प्रायः कोमलता, क्षमा, दया, स्नेहशीलता, वत्सलता, धैर्य, गांभीर्य, व्रत-नियम-पालनदृढ़ता, व्यसनत्याग, तपस्या, तितिक्षा आदि गुण प्रचुरमात्रा में पाये जाते है, जिनकी विश्वशान्ति के लिए आवश्यकता है। प्राचीन काल में भी कई महिलाओं, विशेषतः जैन नारियों ने पुरुषों को युद्ध से विरत किया है। दुराचारी, अत्याचारी एवं दुर्व्यसनी पुरुषों को दुर्गुणों से मुक्त करा कर परिवार, समाज एवं राष्ट्र में उन्होंने शान्ति की शीतल गंगा बहाई है। कतिपय साध्वियों की अहिंसामयी प्रेरणा से पुरुषों का युद्ध प्रवृत्त मानस बदला है। नारी-माहात्म्य : इसी प्रकार सती मदनरेखा ने आत्मशान्ति, मानसिक शान्ति एवं पारिवारिक शान्ति रखने १४० जैन संस्कृति में नारी का महत्व | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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