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________________ जैन संस्कृति का आलोक पुरुष से पहले आत्मविकास की चरमस्थिति में पहुँचना है। उदाहरणतः भगवान् ऋषभदेव के समक्ष जब माता मरुदेवी आती है और हाथी पर बैठे-बैठे ही उनकी अन्तश्चेतना उर्धारोहण करने लगती है और वह मायावी भावनाओं से ऊपर उठकर शुद्ध चैतन्य में लीन हो जाती है, उसी आसन पर बैठे-बैठे वह केवलज्ञान और सिद्धगति प्राप्त कर लेती है। जैन संस्कृति में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता है। श्वेताम्बर परंपरानुसार मल्लि को स्त्री तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करके यह उद्घोषित किया कि आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती है। उसमें अनंतशक्ति संपन्न आत्मा का निवास है। माता मरुदेवी और मल्लि तीर्थंकर के दो ऐसे जाज्वल्यमान उदाहरण श्रमण संस्कृति ने प्रस्तुत किये हैं, जिनके कारण नारी के संबंध में रची गई, अनेक मिथ्या-धारणाएं स्वतः ही ध्वस्त हो जाती है। नारी-गरिमा जैन संस्कृति में नारी की गरिमा आदिनाथ से महावीर युग तक अक्षुण्ण रह सकी। महावीर ने चन्दनबाला के माध्यम से उस परंपरा को एक नवीन मोड़ प्रदान किया। तदुपरांत ही साधु और श्रावक के साथ साध्वी और श्राविका संघ की स्थापना की। साधना के पथ पर नारी ने नव कीर्तिमान स्थापित किये। नारी ने अपने अडिग साधना द्वारा यह प्रमाणित कर दिया कि वह किसी भी दृष्टि से पुरुष से पीछे नही है एक नहीं दो-दो मात्राएं नर से बढ़कर नारी। नारी पर्याय का परमोत्कर्म आर्यिका के महनीय रूप को धारण करने में है। आर्या की व्युत्पत्ति है – सज्जनों के द्वारा जो अर्चनीय - पूजनीय होती है, जो निर्मल चारित्र को धारण करती है, वह “आर्या" कहलाती है। आर्या का अपर नाम “साध्वी" है। जो अध्यात्म साधना का यथाशक्ति परिपालन करती है, उसे “साध्वी" कहा जाता है। शम, शील, श्रुत और संयम ही साध्वी का यथार्थ स्वरूप है। वास्तविकता यह है कि सत्य शील की अमर साधिकाओं की उज्ज्वल परंपरा का प्रवाहमान प्रवाह वस्तुतः विलक्षण प्रवाह है। उनकी आध्यात्मिक जगत् में गरिमामयी भूमिका रही है। वह उद्दण्डता को प्रबाधित करती है। कठोरता को सात्विक अनुराग के द्रव में घोलकर समाप्त कर देती है। पाशविकता पर वल्गा लगाती है। यथार्थ में साध्विरत्नों ने जहाँ निजी जीवन में अध्यात्म का आलोक फैलाकर पारलौकिक जीवन के सुधार की महती और व्यापक भूमिका का कुशलता एवं समर्थता के साथ निर्वाह किया है। वहीं धर्म प्रचार के गौरवपूर्ण अभियान में भी एक अद्भुत उदाहरण उपस्थित करने में सक्षम रही है। अतएव वे नारी के गौरवमय अतीत को अभिव्यक्त करती हैं। जिन साध्विरलों ने सत्य और शील की विशिष्ट साधना की वे सचमुच में अजर-अमर हो गई। उनका जीवन ज्योतिर्मय एवं परम कृतार्थ हुआ और उनके समुज्ज्वल जीवन की सप्राण प्रेरणाओं से समूची मानवता कृतार्थ होती रही है। नारा नारी : ज्योतिर्मयी जैन साहित्य का गहराई से परिशीलन करने पर विदित होगा कि अनेक साध्वियों का ज्योतिर्मय जीवन सविस्तृत रूपेण प्राप्त होता है। भगवान् ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी मानवजाति की प्रथम शिक्षिकाओं के रूप में प्रतिष्ठित है। जंबूद्वीप-प्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णी व आदिपुराण आदि में इन्हें मानव सभ्यता के आदि में ज्योतिस्तंभ माना है। ब्राह्मी ने सर्व प्रथम अक्षरज्ञान की प्रतिष्ठापना की तो सुंदरी ने गणितज्ञान को नूतन अर्थ दिया है। प्रथम शाश्वत साहित्य के वैभव की देवी है तो दूसरी राष्ट्र की भौतिक सम्पति के हानि-लाभ का सांख्य उपस्थित करती है। दोनों ने सांसारिक आकर्षणों को ताक पर रखते हुए आजन्म ब्रह्मचारिणी रहकर मानवजगत् के बौद्धिक विकास की जो सेवा की है, वह स्वर्णाक्षरों में अंकित है। | जैन संस्कृति में नारी महत्व १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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