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जैन संस्कृति का आलोक
कौटुंबिक, जातीय, धार्मिक कोई भी वैषम्य याने विद्वेष होता हो तो उससे होने वाली भवितव्यता पर मानव की दृष्टि नहीं जाती। चाहे सगे-संबंधी क्यों न हो? किसी न किसी तरह से विपक्ष वालों को हरा देना ही एक मात्र प्रण लिया जाता था। यह चरित्र प्रसिद्ध प्रामाणिक बात है।
इतिहास पर जरा दृष्टि डालिए। पृथ्वीराज को हराने के लिए जयचंद ने मुहम्मद गोरी को बुलाया था। जयचंद को मालूम नहीं था कि पृथ्वाराज की जो हालत होगी। एक दिन वही हालत मुझे भी भुगतने पड़ेगी। क्रोध से अंधा व्यक्ति इस बात को कहाँ सोचता है ? फिर जयचंद की क्या हालत हुई थी दुनिया जानती है। इसी तरह इब्राहिम लोदी ने अपने रिश्तेदार को हराने के लिए बाबर को बुलाया था। परंतु बाद में इब्राहिम लोदी की क्या दशा हुई थी? इसका इतिहास साक्षी है।
इसी तरह ८वीं सदी में आपसी वैमनस्य के कारण। तमिलनाडु में भी दो साम्राज्य समाप्त हुए। कांजीपुर के पल्लवनरेश का राज्य एवं दक्षिण मथुरा के पाण्डय नरेश का राज्य - इन दोनों की हालत भी यही रही। ___पहले के जमाने में कोई भी धर्म हो वह पनपने एवं सुरक्षित होने के लिए राज्यसत्ता की जरूरत पड़ती थी। "यथा राजा तथा प्रजा" राजा जिस धर्म को अपनाता है या आदर करता है उसकी उन्नति होती थी। प्रजा के अंदर न्याय और अन्याय के विषय में विचार करने की न तो शक्ति थी, न कर सकती थी। राजा किसी भी धर्म को या धर्मवालों को खतम करना चाहे तो वह आसानी से कर सकता था। न तो प्रजा पूछ सकती और न कोई दूसरा पूछ सकता था। राजा सर्वेसर्वा था और उसकी हुकूमत प्रजा पर सर्वोपरि थी।
आठवीं सदी तक तमिलनाडु में जैन धर्म पनपता रहा। जैन धर्म का प्रचार प्रसार होता रहा। लोगों में अहिंसा का अस्तित्व पूर्ववत् रहा। सभी अहिंसा के पुजारी
रहे। साथ ही साथ जनता के आचरण में सत्य और सदाचार का परिपालन होता रहा। किंतु कुछ हिंसावादी लोगों को यह पसंद नहीं आया। वे लोग विरोध करने लगे। बस, यही बात सत्य है।
तमिलनाडु के अंदर शुरू से जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव धर्म के लोग अपने-अपने आचरण करते आ रहे थे राज्य सत्ता जिस ओर झुकती वह धर्म बढ़ता और जिस ओर न झुकती वह धर्म घटता रहता था। प्रजा इस प्रकार कुछ न कर सकती थी। उसे न अधिकार था और न विचारशीलता थी। लेकिन ये चारों धर्मवाले प्रेमभाव से मिलजुल कर नहीं रहते थे अर्थात् आपस में लड़ते रहते थे। ___ जैन, बौद्ध दोनों अहिंसावादी थे। जैन लोग
अहिंसावादी होने के साथ-साथ मांसाहार के विषय में तीव्र विरोधी थे। बौद्ध लोग मांसाहार के विरोध में कुछ भी कहे बिना सिर्फ अहिंसा प्रचार किया करते थे। इस विषय में जैन लोग सहमत नहीं थे। जैनों के ग्रंथ मांस खाने पर खूब खंडन करते थे। उदाहरण के लिए देखिए तमिलनाडु के नीति प्रधान करल काव्य में बताया गया है कि “कोल्लान पुलालै मरुत्ताने के कूप्पि-एल्ला उयिरूं तोलु" - इसका मतलब यह है कि जो मानव हिंसा नहीं करता है, वह साथ-साथ मांस का भी त्यागी रहेगा तो उसे संसार के सारे जीव हाथ जोड़ नमस्कार करेंगे।
देखिए कितनी मधुर बात है शायद, बौद्धों का
र खण्डन करने के लिए ही तिरुक्कुरल के कर्ता ने अहिंसा के साथ-साथ मांस त्याग पर भी जोर दिया हो। इस तरह जैन धर्म का दृष्टिकोण लोगों के आचार-विचार पर केन्द्रित था इसलिए जैनाचार्यों ने तिरुक्करल, नालडियार, अरनेरिच्चारं आदि नीति ग्रंथों की सृष्टि की थी। इस तरह भरमार नीति ग्रंथों की रचना किसी भी अन्य भाषा में या किसी भी प्रांत में नहीं देखी जा सकती है। इस तरह नीति प्रधान आचरण भी कुछ हिंसामय क्रियाकांड वालों को पसंद नहीं आता था।
| तमिलनाडु में जैन धर्म
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