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________________ इस पवित्र भूमि में जगत् प्रसिद्ध समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, सिंहनंदी, जिनसेन, वीरसेन और मल्लिषेण आदि धुरंधर महान् ऋषियों ने जन्म लिया था । यह पावन स्थान उन तपोधनों का जन्म स्थान होने के साथ-साथ उनका कार्य क्षेत्र भी रहा था । यहाँ का कोई भी पहाड़ ऐसा नहीं है जो जैन संतों के शिलालेख, शय्यायें, वसतिकायें आदि चिह्नों से रिक्त हो । वर्तमान में यहाँ के मन्दिरों के जीर्णोद्धार के लिए अखिल भारतवर्षीय दि. जैन महासभा एवं दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी इन दोनों संस्थाओं की ओर से काफी सहायता मिल रही है। उनकी सहायता से कई मन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ। करीब पन्द्रह साल पहले सन् १६७७ में आचार्य श्री निर्मलसागरजी महाराज पधारे थे। वे यहाँ छः साल तक प्रचार करते रहे। उन्होंने सारे तमिलनाडु में विहार किया। उनके कारण जैन धर्म का काफी प्रचार हुआ था। उसके बाद आर्यिका गणिनी १०५ श्री विजयामती माताजी का आगमन हुआ था । उन्होंने भी छः साल तक सारी जगह विहार कर काफी प्रचार किया था। इस तरह साधु-साध्वियों के कारण प्रचार होता है । समझने की बात यह है कि धर्म का प्रचार त्यागियों से हो रहा है और होता रहेगा। क्योंकि त्यागी लोगों को आहार, जप-तप अनुष्ठान और धर्म प्रचार के सिवाय और कोई काम नहीं है । लोग भी उनकी वाणी का आदर करते हैं। गृहस्थी में बसने वाले श्रावकों को सैकड़ों काम रहते हैं । नित्य प्रति देवदर्शन करने के लिए भी उन्हें अवकाश नहीं मिलता। आजकल नौजवानों में कालदोष एवं वातावरण के कारण धर्म के प्रति श्रद्धा कम होती जा रही है । सिनेमा, ड्रामा, रेडियो, वीडियो, टीवी आदि के विषय में दिलचस्पी ज्यादा दिखाई दे रही है । विरला ही घर ऐसा होगा जहाँ पर रेडियो और टीवी नहीं रहते हों । लोगों के दिल में कामवासना की जागृति ज्यादा दिखाई तमिलनाडु में जैन धर्म Jain Education International जैन संस्कृति का आलोक देती है । आचार-विचार दूर होता जा रहा है। भविष्य अंधकार सा दिखता है । पाश्चात्य देशों की शिक्षा भी इसका एक मुख्य कारण है। थोड़े दिनों में सदाचार का नामोनिशां रहना भी मुश्किल-सा दिख रहा है । पाश्चात्य शिक्षा के कारण युवक और युवतियां स्वतंत्र हो गये हैं । माता-पिता के आधीन नहीं रहते, ऐसे जमाने में धर्मधारणा कहाँ तक रहेगी । यह बात समझ में नहीं आती। फिर भी त्यागी महात्माओं का संपर्क बार-बार मिलता रहेगा तो थोड़ा बहुत सुधार होने की संभावना है । तमिलनाडु में जैनाचार्यों द्वारा विरचित नीतिग्रंथ बहुत हैं, जैसे- तिरुक्कुरुल, नालडियार, अरनेरिच्चारं आदि । ऐसे महत्वपूर्ण नीतिग्रंथ होते हुए भी लोगों के दिल में सुधार नहीं हो पाता । हिंसाकांड की भरमार है । साधारण जैनेतर लोग तो छोटे-छोटे देवताओं की पूजा में तथा भक्ति में लगे हुए हैं। लोग मनौती करते हैं कि अमुक कार्य पूरा हो जाय तो बकरे और मुर्गियों की बलि देंगे । सरकार की तरफ से काली आदि देवियों के सामने बलि देने को मना है । फिर भी कुछ दूर जाकर छिप-छिपाते हुए बलि देते ही रहते हैं। लोग अज्ञानवश अनाचार करते हैं। उन्हें रोकना असंभव सा दिख रहा है । यहाँ भट्टारकों की मान्यता है । यह प्रथा एक जमाने में सारे भारत में थी । उत्तर भारत में धीरे धीरे मिट चुकी है। दक्षिण में अब तक मौजूद है । वर्तमान में मेलचित्तामुर के अंदर लक्ष्मिसेन भट्टारक जी हैं। तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र में भट्टारकों की मान्यता अब भी मौजूद है। मैं समझता हूँ कि जैनधर्म के रक्षार्थ यह मान्यता आदिशंकराचार्य के जमाने में हुई होगी। आदि शंकराचार्य जैन धर्म के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने शैव मठ की स्थापना कर कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक हिन्दू धर्म का प्रचार किया। जैन धर्म का हास होते देखकर जैनी लोगों ने दिल्ली, कोल्हापुर, जिनकांचि, पेनुगोपडा आदि स्थानों For Private & Personal Use Only ११६ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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