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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि कर्म - सिद्धांत की वैज्ञानिकता डॉ. जयन्तीलाल जैन, चेन्नई जैनदर्शन में कर्म सिद्धांत का महत्व विशेषरूपेण प्रतिपादित है। जब तक जीवात्मा कर्म से बद्ध है तब तक संसार में भ्रमण करती रहेगी। कर्म निःशेष होने पर वही आत्मा परमात्म रूप बन जाती है। जीव की अवस्थाओं के परिज्ञान के लिए कर्मवाद को समझना अत्यावश्यक है। कर्म सिद्धांत की वैज्ञानिकता, त्रैकालिकता, सार्वभौमिकता को प्रतिपादित कर रहे हैं - डॉ. श्री जयन्तीलाल जी जैन। - सम्पादक जैन-दर्शन में सिद्धांत किसी के द्वारा बनाये या द्रव्यों का स्वरूप नहीं जानते। इस अचेतन रूप या प्रतिपादित नहीं किये जाते हैं। ये सिद्धांत अरहंत या अज्ञान रूप परिणमन से कर्मों का आस्रव है एवं बंध है। तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित होते हैं। केवलज्ञान में जैसी विश्व- बंधे कर्म फिर समय पाकर उदय में आते हैं और बंध को व्यवस्था झलकती है, वैसा ही भगवान् द्वारा बताया जाता प्राप्त करते हैं। इस प्रकार अज्ञान चक्र से संसार परिभ्रमण है। भगवान् अपनी ओर से कोई सिद्धांत बनाते नहीं है, है। जीव कर्म की प्रकृति, प्रदेश, स्थिति व अनुभाग के अपितु वे तो लक्ष्य को सिद्ध कर स्वयं आदर्श प्रस्तुत आधार पर चारों गतियों में भ्रमण करता है। जब जीव करते हैं। 'अंत' अर्थात् लक्ष्य जिससे 'सिद्ध' होता है, अपने शुद्ध स्वभाव अर्थात् कर्म-रहित स्वभाव का ज्ञान वही 'सिद्धांत' है। इस प्रकार समस्त जैन-दर्शन में प्ररूपित कर उसमें लीन होता है, उस रूप परिणमन करता है, तब सिद्धांत परम वैज्ञानिकता को लिए हुए हैं, चाहे उन्हें कोई आस्रव रुक जाता है, बंध नहीं होता, संवर व निर्जरा माने या न माने । कर्म का सिद्धांत जीव की संसार अवस्था होते हैं और अंत में जीव मोक्षदशा को प्राप्त करता है, का एक मूलभूत सिद्धांत है। जैन दर्शन में इसका इतना जहाँ कर्म के बंध का सर्वथा अभाव है। व्यापक, वैज्ञानिक, त्रैकालिक, सार्वभौमिक एवं अकाट्य उक्त शुद्धिकरण की जिनवाणी में त्रैकालिक वैज्ञानिक निरूपण हुआ है, जितना अन्य किसी दर्शन में नहीं हुआ ___ व्यवस्था है। अनंतजीवों ने भूतकाल में इसी वैज्ञानिक है। सभी जीवों की समस्त अवस्थाओं को समझने के व्यवस्था को समझकर, उस रूप परिणमन कर मोक्ष दशा लिए इस कर्मवाद का ज्ञान आवश्यक है। या सिद्ध दशा को प्राप्त किया है। वर्तमान में भी जीव विश्व-व्यवस्था व कर्म इसी को जान कर मोक्ष की साधना करते हैं। भविष्य में भी वही जीव इस दशा को प्राप्त होते हैं जो जिनवाणी की इस विश्व में छः द्रव्य हैं - जीव, पुद्गल, आकाश, इस शद्धि करण की व्यवस्था के अनुरूप परिणमन करते काल, धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय । जीव चेतन लक्षण हैं। छः द्रव्य एक दूसरे द्रव्य के गुण या पर्याय को उत्पन्न वाला है और अन्य पांच अजीव है। कर्म पुद्गल परमाणु नहीं कर सकता है। इससे यह वैज्ञानिक सिद्धांत सिद्ध रूप हैं और उस संबंधी जो जीव के भाव है वे भाव कर्म होता है कि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन अपने से होता है। हैं। जो जीव विश्व-व्यवस्था को नहीं जानते, वे अज्ञान प्रत्येक द्रव्य के षटकारक कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अवस्था रूप परिणमन करते हैं क्योंकि पुद्गलादि अन्य अपादान व अधिकरण वह द्रव्य स्वयं ही है। इस प्रकार ७८ कर्म सिद्धांत की वैज्ञानिकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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