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________________ साधना का महायात्री : श्री समन मुनि जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों को पीड़ा से कराहता देखकर केवल अपनी मुक्ति की कामना करता है, वह निकृष्ट कोटि का है। अरे और तो क्या, स्वयं परमात्मा भी दूसरों की पीड़ाओं को दूर करने के लिए ही संसार में जन्म धारण करते हैं। हिन्दू परम्परा में जो अवतार की अवधारणा है उसमें अवतार का उद्देश्य यही माना गया है कि वे सत्पुरुषों के परित्राण के लिए ही जन्म धारण करते हैं। जब परमात्मा भी दूसरों के दुःख को दूर करने के लिए संसार में अवतरित होते हैं, तो फिर यह कैसे माना जा सकता है कि दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पता देखकर केवल अपनी मुक्ति की कामना करने वाला साधक उच्चकोटि का साधक है। बौद्ध परम्परा में आचार्य शान्तिरक्षित ने बोधिचर्यावतार में कहा है कि दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पते देखकर केवल अपने निर्वाण की कामना करना कहाँ तक उचित है? अरे, दूसरों के दुःखों को दूर करने में जो सुख मिलता है वह क्या कम है, जो केवल स्वयं विमुक्ति की कामना की जाए? लोकमंगल हेतु धर्मचक्र का प्रवर्तन ____बौद्ध परम्परा में महायान सम्प्रदाय में बोधिसत्व का आदर्श सभी के दुःखों की विमुक्ति होता है। वह अपने वैयक्तिक निर्वाण को भी अस्वीकार कर देता है, जब तक संसार के सभी प्राणियों के दुःख समाप्त होकर उन्हें निर्वाण की प्राप्ति न हो। जैन परम्परा में भी तीर्थंकर को लोक कल्याण का आदर्श माना गया है। उसमें कहा गया है कि समस्त लोक की पीड़ा को जानकर तीर्थंकर धर्मचक्र का प्रर्वतन करते हैं। यह स्पष्ट है कि कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् तीर्थंकर के लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं रहता है, वे कृत-कृत्य होते हैं। फिर भी लोकमंगल के लिए ही वे धर्मचक्र का प्रवर्तन करके अपना शेष जीवन लोकहित में अपना शेष जीवन लोकहित में समर्पित कर देते हैं। यही भारतीय दर्शन और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ आदर्श है। इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव ही दीन और दुःखी जनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयलशील बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है। - भवेयमुपजीव्योऽहं यावत्सर्वे न निर्वृताः । वस्तुतः मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है। इस सम्बन्ध में आचार्य विनोबा भावे के उद्गार विचारणीय हैं - “जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल जाता है। 'मैं' के आते ही मोक्ष भाग जाता है। मेरा मोक्ष - यह वाक्य ही गलत है। 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है।" इसी प्रकार अहंकार से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है। 'मैं' अथवा अहं भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है। मुक्ति वही प्राप्त कर सकता है जो कि अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, समाज में विलीन कर दे। आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं: सर्वत्यागश्च निर्वाण निर्वाणार्थि च मे मनः। त्यक्तव्यं चेन्मया सर्वं वरं सत्त्वेषु दीयताम् ।। इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, गलत है। मोक्ष वस्तुतः दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के अधिकांश दुःख, मानवीय संवेगों के कारण ही हैं। अतः मुक्ति, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों से मुक्ति पाने में है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख, अंहकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता। अन्त में, कह सकते हैं कि भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि पूर्णतः सामाजिक और लोकमंगल के लिए प्रयलशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र मंगल कामना है: ७६ साधना और सेवा का सहसम्बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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