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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
धर्म का अर्थ लोकमंगल
सेवा श्रेष्ठ है ! कोई भी धर्म या साधना पद्धति ऐसी नहीं है, जो जो लोग साधना को जप, तप, पूजा, उपासना या व्यक्ति को अपने वैयक्तिक हितों या वैयक्तिक कल्याण नाम स्मरण तक सीमित मान लेते हैं, वे वस्तुतः एक भ्रान्ति तक सीमित रहने को कहती है। धर्म का अर्थ भी लोकमंगल में ही हैं। प्रश्न प्रत्येक धर्म साधना पद्धति में उठा है कि की साधना ही है। गोस्वामी तुलसीदास ने धर्म की परिभाषा वैयक्तिक साधना अर्थात् जप, तप, ध्यान तथा प्रभु की करते हुए स्पष्ट रूप से कहा है -
पूजा-उपासना और सेवा में कौन श्रेष्ठ है? जैन परम्परा में
भगवान् महावीर से यह पूछा गया कि एक व्यक्ति आपकी परहित सरिस धरम नहिं भाई।
पूजा-उपासना या नाम स्मरण में लगा हुआ है और दूसरा पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
ग्लान एवं रोगी की सेवा में लगा हुआ है इनमें कौन श्रेष्ठ तुलसीदास जी द्वारा प्रतिपादित इसी तथ्य को प्राचीन । है? प्रत्युत्तर में भगवान महावीर ने कहा था कि जो रोगी एवं आचार्यों ने “परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम्" अर्थात्
ग्लान की सेवा करता है, वही श्रेष्ठ है, क्योंकि वही मेरी परोपकार करना पुण्य या धर्म है और दूसरों को पीड़ा देना
आज्ञा का पालन करता है। इसका तात्पर्य यह है कि पाप है - कहकर परिभाषित किया था। पुण्य-पाप, धर्म
वैयक्तिक जप, तप, पूजा और उपासना की अपेक्षा जैन
धर्म में भी संघ-सेवा को अधिक महत्व दिया गया। उसमें अधर्म के बीच यदि कोई सर्वमान्य विभाजक रेखा है, तो
संघ या समाज का स्थान प्रभु से भी ऊपर है, क्योंकि वह व्यक्ति की लोकमंगल की या परहित की भावना ही
तीर्थंकर भी प्रवचन के पूर्व 'नमो तित्थस्स' कहकर संघ है, जो दूसरों के हितों के लिए या समाज- कल्याण के
को वंदन करता है। संघ के हितों की उपेक्षा करना सबसे लिए अपने हितों का सर्मपण करना जानता है, वही
बड़ा अपराध माना गया था। जब आचार्य भद्रबाहु ने नैतिक है, वही धार्मिक है और वही पुण्यात्मा है। बौद्धधर्म
अपनी ध्यान साधना में विघ्न आएगा, यह समझकर में लोकमंगल को साधना का एक उच्च आदर्श माना गया
अध्ययन करवाने से इन्कार किया, तो संघ ने उनसे यही था। बुद्ध ने अपने शिष्यों को यह उपदेश दिया था -
प्रश्न किया था कि संघहित और आपकी वैयक्तिक साधना "चरत्थ भिक्खवे चारिक्कं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय", अर्थात्
में कौन श्रेष्ठ है और अन्ततोगत्वा उन्हें संघहित को प्राथमिकता हे भिक्षुओ! बहुजनों के हित के लिए और बहुजनों के देना पड़ी। यही बात प्रकारान्तर से हिन्दू धर्म में भी कही सुख के लिए प्रयत्न करो। न केवल जैन धर्म, बौद्ध धर्म गई है। उसमें कहा गया है कि वे व्यक्ति जो दूसरों की या हिन्दू धर्म की, अपितु इस्लाम और ईसाई धर्म की भी सेवा छोड़कर केवल प्रभु का नाम स्मरण करते रहते हैं, वे मूलभूत शिक्षा लोकमंगल या सामाजिक हित साधन ही भगवान् के सच्चे उपासक नहीं हैं। २ रही है। इससे यही सिद्ध होता है कि सेवा और साधना
इस प्रकार इस समस्त चर्चा से यह फलित होता है । दो पृथक्-पृथक् तथ्य नहीं हैं। सेवा में साधना और
कि सेवा ही सच्चा धर्म है और यही सच्ची साधना है। साधना में सेवा समाहित है। यही कारण था कि वर्तमान यही कारण है कि जैन धर्म में तप के जो विभिन्न प्रकार युग में महात्मा गांधी ने भी दरिद्रनारायण की सेवा को ही बताए गये हैं, उनमें वैयावृत्य (सेवा) को एक महत्वपूर्ण सबसे बड़ा धर्म या कर्तव्य कहा।
आभ्यन्तर तप माना गया है। तप में सेवा का अन्तर्भाव
१. आवश्यकवृत्ति पृ. ६६१-६६२
२. भगवद्गीता (राधाकृष्णन) पृ. ७१ भूमिका
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साधना और सेवा का सहसम्बन्ध
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