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पृथक् होकर समाज की कोई सत्ता नहीं है । इसलिए सामाजिक कल्याण के नाम पर जो किया जाता है या होता है, उसका सीधा लाभ तो व्यक्ति को ही है । जैनधर्म-दर्शन की मूलभूत अवधारणा सापेक्षवाद की है । उसका यह स्पष्ट चिंतन है कि व्यक्ति के बिना समाज और समाज के बिना व्यक्ति सम्भव ही नहीं है । व्यक्ति समाज की कृति है । उसका निर्माण समाज की कर्मशाला में ही होता है । हमारा वैयक्तिक विकास, सभ्यता एवं संस्कृति समाज का परिणाम है । पुनः समाज भी व्यक्तियों से ही निर्मित होता है । अतः व्यक्ति और समाज में अंग-अंगीय सम्बन्ध है | किन्तु यह सम्बन्ध ऐसा है जिसमें एक के अभाव में दूसरे की सत्ता नहीं रहती है । इस समस्त चर्चा से यही सिद्ध होता है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे में अनुस्यूत है। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती और यदि यह सत्य है तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सेवा और साधना परस्पर सहसम्बन्ध । आइए, इस प्रश्न पर और गम्भीरता से चर्चा करें । साधना सेवा से पृथक नहीं
साधना और सेवा के इस सहसम्बन्ध की चर्चा में सर्वप्रथम हमें यह निश्चित करना होगा कि साधना का प्रयोजन / उद्देश्य क्या है ? यह तो स्पष्ट है कि साधना वह प्रक्रिया है, जो साधक को साध्य से जोड़ती है । वह साध्य और साधक के बीच योजक कड़ी है । साधना साध्य के क्रियान्वयन की प्रक्रिया है । अतः बिना साध्य के उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है । साधना में साध्य प्रमुख तत्व है । अतः सबसे पहले हमें यह निर्धारित करना होगा कि साधना का वह साध्य क्या है, जिसके लिए साधना की जाती है । दार्शनिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति स्वरूपतः असीम या पूर्ण है, किन्तु उसकी यह तात्त्विक पूर्णता किन्हीं सीमाओं में सिमट गई है। असीम होकर भी उसने अपने को ससीम बना लिया है। जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही अपना जाल बुनकर उसी घेरे में सीमित हो जाती है या
| साधना और सेवा का सहसम्बन्ध
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जैन संस्कृति का आलोक
बंध जाती है, उसी प्रकार वैयक्तिक चेतना ( आत्मा ) आकांक्षाओं या ममत्व के घेरे में अपने को सीमित कर बंधन में आ जाती है। वस्तुतः सभी धर्मों और साधना पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य है व्यक्ति को ममत्व के इस संकुचित घेरे से निकालकर उसे पुनः अपनी अनन्तता या पूर्णता प्रदान करना है। दूसरे शब्दों में कहें तो सम्पूर्ण धर्मों और साधना पद्धतियों का उद्देश्य आकांक्षा और ममत्व के घेरे को तोड़कर अपने को पूर्णता की दिशा में आगे ले जाना है। जिस व्यक्ति का ममत्व का घेरा जितना संकुचित या सीमित होता है, वह उतना ही क्षुद्र होता है । इस ममत्व के घेरे को तोड़ने का सहजतम उपाय है, इसे अधिक से अधिक व्यापक बनाया जाए जो व्यक्ति केवल अपने दैहिक हित साधन का प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है, उसे निकृष्ट कोटि का व्यक्ति कहते हैं, ऐसा व्यक्ति स्वार्थी होता है । किन्तु, जो व्यक्ति अपनी दैहिक वासनाओं से ऊपर उठकर परिवार या समाज के कल्याण की दिशा में प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है, उसे उतना ही महान् कहा जाता है। वैयक्तिक हितों से पारिवारिक हित, पारिवारिक हितों से सामाजिक हित, सामाजिक हितों से राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय हितों से मानवीय हित और मानवीय हितों से प्राणी जगत् के हित श्रेष्ठ माने जाते हैं । जो व्यक्ति इनमें उच्च, उच्चतर और उच्चतम की दिशा में जितना आगे बढ़ता है, उसे उतना ही महान् कहा जाता है । किसी व्यक्ति की महानता की कसौटी यही है कि वह कितने व्यापक हितों के लिए कार्य करता है । वही साधक श्रेष्ठतम समझा जाता है, जो अपने जीवन को सम्पूर्ण प्राणी जगत् के हित के लिए समर्पित कर देता है । इस प्रकार साधना का अर्थ हुआ लोकमंगल या विश्वमंगल के लिए अपने आप को समर्पित कर देना । इस प्रकार साधना वैयक्तिक हितों से ऊपर उठकर प्राणि-जगत् के हित के लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ करना है, तो वह सेवा से पृथक् नहीं है ।
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