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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि जैन साधना और ध्यान । प्रोफेसर डॉ. छगनलाल शास्त्री एम.ए (वय) पी.एच.डी. काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि, प्राच्यविद्याचार्य जैन साधना और ध्यान का हृदयस्पर्शी एवं सटीक विश्लेषण किया है- डॉ. श्री छगनलाल जी शास्त्री ने। शास्त्री जी कई दशकों से जैन योग पर शोध-खोज कर रहे हैं, किंतु वे व्यथित हैं कि साधना एवं योग की पद्धतियाँ आज मात्र अर्थोपार्जन के साधन बन कर रह गई हैं। आइए - जैन जगत् के इस उद्भट विद्वान् की लेखनी से पढ़िए जैन साधना एवं ध्यान का मनोहारी वर्णन ! - सम्पादक भगवान् महावीर की साधना : ध्यान ___ अन्तः परिष्कार या आध्यात्मिक विशुद्धि के लिए जैन साधना में ध्यान का बहुत बड़ा महत्व रहा है। - अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के अन्यान्य विशेषणों के साथ एक विशेषण 'ध्यानयोगी' भी है। आचारांग सूत्र के नवम् अध्ययन में जहाँ भगवान् महावीर की चर्या का वर्णन है. वहीं उनकी ध्यानात्मक साधना का भी उल्लेख है। विविध प्रकार से नितान्त असंग भाव से उनके ध्यान करते रहने के अनेक प्रसंग वर्णित हैं। एक स्थान पर लिखा है - "भगवान् प्रहर-प्रहर तक अपनी आँखें बिल्कुल न टिमटिमाते हुए तिर्यक् भित्ति/तिरछी भीत पर केंद्रित कर ध्यान करते थे। दीर्घकाल तक नेत्रों के निर्निमेष रहने से उनकी पुतलियाँ ऊपर को चढ़ जातीं। उन्हें देखकर बच्चे भयभीत हो जाते, 'हन्त-हन्त' कहकर चिल्लाने लगते और दूसरे बच्चों को बुला लेते।"१ इस संदर्भ से प्रकट होता है कि भगवान महावीर का यह ध्यान किसी प्रकार त्राटक-पद्धति से जुड़ा था। दूसरा प्रसंग है "भगवान् अपने विहार क्रम के बीच यदि गृहस्थसंकल स्थान में होते तो भी अपना मन किसी में न लगाते हुए ध्यान करते। किसी के पूछने पर भी अभिभाषण नहीं करते। कोई उन्हें बाध्य करता तो वे चुपचाप दूसरे स्थान पर चले जाते अपने ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते।" आगे लिखा है - भगवान् अपने साधना काल के साढ़े बारह वर्षों में जिन-जिन वास स्थानों में रहे, बड़े प्रसन्न मन रहते थे। रात दिन यत्नशील, स्थिर, अप्रमत्त, एकाग्र, समाहित तथा शांत रहते हए ध्यान में संलग्न रहते थे। एक दूसरे स्थान पर उल्लेख है"जब भगवान् उपवन के अंतर - आवास में कभी १ अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज्ज अंत सो झाइ। अह चक्खु - भीया सहिया तं हंता हंता बहवे कंदि।। -आचारांग सूत्र ६.१.५ २. जे के इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से ज्झाति । पुट्ठो वि णाभिभासिंसु, गच्छति णाइवत्तई अंजू।। - आचारांग सूत्र ६.१.७ ३. एतेहिं मुणी सयणेहिं, समणे आसी पत्तेरस वासे । राइंदिवं पि जयमाणे अप्पमत्ते समाहिए झाति।। - आचारांग सूत्र ६.२.४ ६२ जैन साधना और ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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