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________________ जैन संस्कृति का आलोक यह कथन कि १५०० वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णतः भ्रान्त है। आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी-चौथी शताब्दी या उससे भी पहले का माना है। क्या उस समय ये आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे? ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और 'ण' कार की प्रवृति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही नहीं था, अन्यथा अशोक के अभिलेखों में और मथरा (जो शौरसेनी की जन्म-भमि हैं) के अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य वाले शब्द रूप उपलब्ध होने चाहिए थे। क्या शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है जो ई.पू. में लिखा गया हो? सत्य तो यह है कि ईसा की चौथी-पाँचवी शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ नहीं था, जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी के आगम ई.पू. तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी कह रहे हैं, उसे महाराष्ट्री भी मान ले तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। सातवाहन काल की गाथा-सप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो इसी ई.पू. प्रथम शती से ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित है। पुनः यह एक संकलन ग्रन्थ है, जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे। कालिदास के नाटक, जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता है, भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से, अपितु परवर्ती 'य' श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं। किसी भी स्थिति में ईसा की ५वीं शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५वीं शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और उमास्वाति के तत्त्वार्थसत्र (लगभग चतर्थ शती) से परवती ही सिद्ध करती है, क्योंकि इनमें ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं। इस सम्बन्ध में मैंने अपने, ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्तः एक विश्लेषण' और 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला है। इस प्रकार सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु शौरसेनी भाषा और शौरसेनी आगम ही ईसा. की ५वीं शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाई सुदीप जी पहले मागधी और पालि तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को, इनमें प्रत्येक के लक्षणों को तथा जैन आगमिक साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम को और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलाएं, व्यर्थ की आधारहीन भ्रान्तियाँ खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोएं। 0 प्रोफेसर डॉ. सागरमल जी जैन का जन्म ताः २२ फरवरी सन् १६३२ में शाजापुर (म.प्र.) में हुआ। आपने एम.ए.एवं साहित्यरत्न की परीक्षाएं श्रेष्ठ अंकों से उत्तीर्ण की। आप इंदौर, रीवाँ, भोपाल और ग्वालियर के महाविद्यालयों में दर्शन शास्त्र के प्रवक्ता, आचार्य एवं विभागाध्यक्ष रहे। सन् १६७६ से १६६६ तक आप पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध संस्थान, वाराणसी के निदेशक रहे। भारत और विदेशों में आपने अनेक व्याख्यान दिए। ओजस्वी वक्ता, लेखक, समालोचक के रूप में सुविख्यात डा. जैन ने जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का विशेष अध्ययन किया। आपने बीस से अधिक शोधपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। आपके सैकड़ों शोधपूर्ण निबंध अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। “श्रमण" के प्रधान संपादक। आपके निर्देशन में तीस छात्रों ने पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वान् । अनेक शैक्षणिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के पदाधिकारी। | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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