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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
मात्र इतना ही नहीं, दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका में दिगम्बर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते हैं कि भगवान् महावीर ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया। प्रमाण के लिए उस टीका के अनुवाद का वह अंश प्रस्तुत है “ अर्धमगध देश भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है । शंका अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है, क्योंकि भगवान् की भाषा ही अर्धमागधी है ? उत्तर मगध देव के सानिध्य में होने से । " आचार्य प्रभाचन्द्र ने नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ में लिखा है, “एक योजन तक भगवान् की वाणी स्वयमेव सुनाई देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्य-ध्वनि का विस्तार मगध जाति के देव करते हैं । अतः अर्धमागधी भाषा देवकृत है।
( षट्प्राभृतम् चतुर्थ बोधपाहुड टीका पृ. १७६ / २१ )
मात्र यही नहीं, वर्तमान में भी दिगम्बर - परम्परा के महान् संत एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी अपनी पुस्तक जैन धर्म दर्शन पृष्ठ ४० में लिखते हैं कि "उन भगवान् महावीर का उपदेश सर्वग्राह्य 'अर्धमागधी' भाषा में हुआ।
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जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह मानकर चल रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में हुआ था और इसी भाषा में उनके उपदेशों के आधार पर आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों किया जा रहा है? यह तो आगमिक प्रमाणों की चर्चा हुई । व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं -
१. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिये तो यह स्वाभाविक है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा । अतः सिद्ध है कि आगमों की मूल भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित 'मागधी '
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अर्थात् 'अर्धमागधी' रही है, यह मानना होगा ।
२. इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य मान्य ग्रन्थों में किसी एक भी ग्रन्थ में एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं है, जिससे यह प्रतिध्वनित भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी । उनमें मात्र यह उल्लेख है कि तीर्थंकरों की जो वाणी खिरती है, वह सर्वभाषारूप परिणत होती है । उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि उनकी वाणी जन साधारण को आसानी से समझ में आती थी । वह लोक-वाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की क्षेत्रीय बोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण था कि उसे मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था ।
३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, उसका वहाँ की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है । प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा - आचारांग, सूत्रकृतांग, इसिभासियाई (ऋषिभाषित), उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रचित हैं । उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएँ हैं । मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं हैं कि महावीर ने बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार किया हो । अतः उनकी भाषा अर्धमागधी रही होगी ।
४. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में और दूसरी वाचना खण्डगिरी (उड़ीसा) में हुई। ये दोनों क्षेत्र मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित हैं। अतः कम से कम प्रथम और द्वितीय वाचना के समय तक अर्थात् ईस्वी पूर्व दूसरी शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने का या उससे प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है ।
यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म, एवं विद्या का केन्द्र पाटलीपुत्र से हटकर लगभग ईस्वी पूर्व प्रथम शती में मथुरा बना तो उस पर शौरसेनी का प्रभाव आना प्रारम्भ हुआ हो। यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी शती तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना
जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ?
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