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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि हों अथवा दिगम्बरों के षट्खण्डागमसूत्र, समयसार आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका में एक बृहत्संगीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध साहित्य का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी निबद्ध बौद्ध साहित्य ग्रंथों को अग्निसात् कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में था, जिसका रूप क्रमशः अर्धमागधी में बदल गया। यदि हम वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम साहित्य मानने पर जोर देंगें, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहिले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को ५०० वर्ष ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि आज भी आचारांगसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबिक नये प्रकाशित संस्करणों में उन शब्दों का अर्धमागधीकरण हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्ष-व्यामोह के कारण ऐसे परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूल रूप खो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगम्बर जैन साहित्य में ही शौरसेनी भाषा के प्राचीन रूप सुरक्षित उपलब्ध हैं।” प्राकृत विद्या, जनवरी-मार्च ६६ का सम्पादकीय निस्संदेह प्रो. टाटिया जैन और बौद्ध दर्शन के वरिष्ठतम विद्वानों में एक हैं तथा उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा । किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद प्रश्न है, क्योंकि एक ओर तुलसी प्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टाटिया जी ने इसका खण्डन किया है । वे तुलसी प्रज्ञा ( अप्रैल जून, ६६ खण्ड २२, अंक ४ ) में लिखते हैं कि “डॉ. नथमल टाटिया ने दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन किया है कि महावीर - वाणी शौरसेनी ४४ Jain Education International प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि आचारांग, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग और दशवैकालिक में अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है" । दूसरी और प्राकृत विद्या के सम्पादक डॉ. सुदीप जी का कथन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है और हमने उन्हें अविकल रूप से यथावत् दिया है। मात्र इतना ही नहीं, डॉ. सुदीप जी का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे टाटिया जी से मिले हैं और टाटिया जी ने उन्हें कहा है कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं। टाटिया जी के इस कथन को उन्होंने प्राकृत विद्या जुलाई - सितम्बर ६६ के अंक में निम्नलिखित शब्दों मे प्रस्तुत किया है : “मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत तथ्यों पर पूर्णतः दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है । " (पृ.६) यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों सम्पादकों के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और डॉ. टाटिया का मूल मन्तव्य क्या है ? इसका निर्णय तो तभी सम्भव है जब डॉ. टाटियाजी स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस संबंध में मौन हैं। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया । मैं डॉ. टाटियाजी की उलझन समझता हूँ। एक ओर कुन्दकुन्द भारती ने उन्हें उपकृत किया है, तो दूसरी ओर वे जैन विश्वभारती की सेवा में रहे हैं, जब जिस मंच से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिये होंगे और अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती हैं कि डॉ. टाटियाजी जैसा गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के ऐसे वक्तव्य दे दे । कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ अवश्य हो रही जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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