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________________ जैन संस्कृति का आलोक परदोष दर्शन, प्रतिस्पर्धा, दूसरे को पीछे ढ़केल कर का आधार भी अहिंसा है। इस विचार को दृढ़ करना आगे निकल जाने की इच्छा एवं प्रयत्न, ये भी हिंसा के ही चाहिए। हिंसा अपरिहार्य होते हुए भी जीवन का आधार अंग हैं। ये आज के युग में जीवन के अनिवार्य अंग बन या दिशा निर्देशक नहीं हो सकती। अहिंसा सभी नैतिकता, गये हैं। अतः यह आवश्यक है कि हम यह स्वीकार करें कि सभी धर्मों का मूल है, तथा वही धर्म का शाश्वत, शुद्धतम ये अहिंसा के विरोधी हैं तथा इन्हें प्रोत्साहन प्रदान न करें। रूप है। वस्तुतः अहिंसा कोई गुण विशेष नहीं - वह तो दूसरों के गुणों में दोष देखना असूया कहलाता है। "पर अनेक गुणों की समष्टि है। शान्ति, प्रेम, करुणा, दया गुणेषु दोषाविष्कारम्" ।। अनसूया का अर्थ है - न गुणान् कल्याण मंगल, अभय, रक्षा, क्षमा, अप्रमाद आदि सभी गुणिनो हन्ति स्तोति चान्यगुणानपि। न हसेच्चान्य दोषाश्च गुण अहिंसा के ही पर्याय एवं अंग-प्रत्यंग हैं। प्रेम, आत्मीयता, सानसूया प्रकीर्तिताः। अर्थात् दूसरे के गुणों का हनन न त्याग, समता, करुणा, अहिंसा के आधार हैं। सभी प्राणियों करके उनकी स्तति करना तथा दूसरे के दोषों की हंसी न के प्रति समभाव से व्यवहार करना यही अहिंसा है। सभी उड़ाना अनसूया कहलाता है। मानवों, प्राणियों को शान्तिपूर्ण ढंग से जीने का अधिकार है अतः जहाँ भी जीवन है उसका आदर करना अहिंसा का ही अहिंसा से सम्बन्धित भावनाएँ रूप है। यही नहीं व्यावहारिक स्तर पर सहयोग एवं सहायता ___मैत्र्यादि चतुर्भावनाओं के अतिरिक्त मानसिक अहिंसा के बिना जीवन ही संभव नहीं। अतः सह-अस्तित्व के लिए की साधना के लिए हिंसा वृत्ति के दोषों को देखकर उसके भी अहिंसा अपरिहार्य है। भले ही हिंसा का पूर्णरूपेण प्रति त्याज्य बुद्धि प्रबल बनाना आवश्यक है। कृत, परित्याग संभव न हो तो भी यह तो निश्चित है कि जितनी कारित, वांछित और अनुमोदित, ये हिंसा के चार प्रकार कम हिंसा हो, उतना ही जीवन श्रेष्ठतर होगा - 'Loss पुनः लोभ, मोह और क्रोध ये हिंसाएँ त्रिविध प्रकार की killing is better living.' साधना में प्रवृत्त त्यागी साधक होती है। चाहे कैसी भी हिंसा हो, अपरिहार्य कर्म सिद्धान्त समस्त प्राणियों को संकल्प द्वारा अभय प्रदान करता है। के कारण दुःखदायक होती है। वन्धनादि द्वारा किसी के अगर किसी संयोग अथवा कारणवश उसे हिंसा में प्रवृत्त वीर्य का नाश करने के फलस्वरूप हिंसक के मन और होना पड़े, ऐसा कार्य करना पड़े जिससे दूसरे को कष्ट हो इन्द्रियाँ दुर्बल वीर्यहीन हो जाती हैं। दूसरो को दुःख तो उसे इसके लिए पश्चाताप करना चाहिए। “धिक्कार है प्रदान करने के कारण हिंसक को नरक, तिर्यग् आदि मुझे कि मैं समस्त प्राणियों को अभय-प्रदान करने के बाद योनियों में दुःख सहन करना पड़ता है और किसी प्राणी पुनः इसके विपरीत कार्य कर रहा हूँ। इस तरह स्वयं को के प्राण नाश करने के फलस्वरूप हिंसक या तो स्वयं कोसना, अहिंसा की भावनाओं को मन में बैठाने में अत्यन्त अल्पायु होता है, अथवा दीर्घायु होकर भी बहुत समय । उपयोगी है।" ..."मैं अभी तक अहिंसा में प्रतिष्ठित नहीं तक रुग्ण रहकर मृत्यु तुल्य कष्ट भोगता है। इस प्रकार हो सका" यह सोचकर क्षोभ करना चाहिए तथा किसी भी हिंसा के दुष्परिणामों का चिन्तन कर उसके प्रति त्याग स्थिति में हिंसा का अनुमोदन नहीं करना चाहिए। वर्तमान बुद्धि दृढ़ करनी चाहिए। समय में जब हिंसा की सर्वत्र वृद्धि हो रही है तथा उसे अनिवार्य एवं आवश्यक माना जाने लगा है, अहिंसा एवं इसी प्रकार अहिंसा के गुण का चिन्तन करना चाहिए। सह-अस्तित्व के सिद्धान्तों पर से लोगों की आस्था हटती अहिंसा में ही सुख और शान्ति है तथा समाज की व्यवस्था जा रही है ऐसी स्थिति में पुनः अहिंसा के प्रति आदर | अहिंसा परमो धर्मः २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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