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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि उपर्युक्त व्यापक दृष्टि से विषय का अवलोकन करने करना चाहिए तथा लौकिक व्यवहार के समय मन में इस पर यह समझना आसान हो जाएगा कि अहिंसा को पंच बात का स्मरण करते रहना चाहिए कि सर्वत्र एक ही यमों में क्यों प्रमुख स्थान दिया गया है तथा सत्यादि भी परमात्म सत्ता विद्यमान है जो मेरी आत्मा से अभिन्न है। अहिंसा के अंग क्यों माने गये हैं? सत्य का अर्थ है। पारमार्थिक सत्य पर सीधे आधारित हुए भी यह साधना असत्य भाषण कर दूसरे को कष्ट न देना । अस्तेय अर्थात् आसान नहीं है। अतः इससे उतर कर कुछ निम्न स्तर पर दूसरे के सत्त्व का हरण कर उसे कष्ट न देना। मन से हिंसा तथा हिंसा सम्बन्धित भावों को त्यागने का परिग्रह का अर्थ है जिन वस्तुओं पर दसरों की दष्टि प्रयल किया जाना चाहिए। है, वह मेरे द्वारा भोगी जाये यह भाव तथा आवश्यकता (२) वैर त्याग की साधना – मानसिक स्तर पर अहिंसा से अधिक संग्रह करना। संसार में भोजन का एक भी वैर, घृणा इत्यादि के रूप में अभिव्यक्त होती है। वैर भी ऐसा कौर नहीं है, जिस पर मक्खी, चींटी, चिड़ियाँ आदि पर-पात्र के भेद से चार प्रकार का होता है। जिसके सुख की दृष्टि न हो इतना होते हुए भी जो इनका संग्रह करता में हमारा स्वार्थ नहीं रहता या जिसके सुख से हमारे स्वार्थ है, वह हिंसा करता है। -- अतः इससे विरत होना अपरिग्रह। का व्याघात होता है, उसको सुखी देखने से उनका चिन्तन है। इसी तरह दूसरे को भोग्य न समझना एवं भोक्तृत्व करने से साधारण चित्त प्रायः ईर्ष्यालु होते हैं। उसी प्रकार की हिंसा न करना ही ब्रह्मचर्य है। दुर्भाग्य यह है कि शत्रु आदि को दुखी देखने से निष्ठुर हर्ष उमड़ता है। जो अनादि काल से जीवन के लिए संघर्ष में रत मानव के हमारे अपने मतानुसारी नहीं हैं पर पुण्यकर्मा हैं, ऐसे लिए हिंसा स्वाभाविक हो गई है उसे सीखना नहीं पड़ता। व्यक्तियों की प्रतिष्ठा आदि देखने से या चिन्तन करने से लेकिन अहिंसा के लिए शिक्षा आवश्यक है, एवं हिंसा के मन में असूया या अमुदित भाव आते हैं और जो पुण्यकर्मा त्याग द्वारा अहिंसा के संस्कारों को दृढ़ करना आवश्यक नहीं हैं उनके प्रति (यदि स्वार्थ नहीं रहे तो) अमर्ष या क्रुद्ध तथा पिशुन भाव उठते हैं। इस प्रकार ईर्ष्या, निष्ठुर अहिंसा की साधना हर्ष, अमुदिता तथा क्रुद्ध पिशुन भाव हिंसा या वैर के ही अहिंसा के स्वरूप की विस्तृत व्याख्या का उद्देश्य चार प्रकार हैं। इन्हें सुखी के प्रति मैत्री भाव, दुःखी के उसकी साधना के प्रकार तथा उपायों को भलिभाँति समझना प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति मुदिता या प्रसन्नता की है। जैसा कि कहा जा चुका है, अहिंसा के तीन स्तर हैं: भावना तथा अपुण्यात्माओं की उपेक्षा के द्वारा दूर करना पारमार्थिक, मानसिक और शारीरिक । पारमार्थिक अहिंसा चाहिए। इन भावनाओं को दृढ़ करने वाली अनेक प्रार्थनाएँ लक्ष्य है, एवं मानसिक और शारीरिक अहिंसा उस लक्ष्य सभी धर्मों में प्रचलित है, तथा उनका प्रतिदिन पाठ कर को पाने के उपाय। इन उपायों में मानसिक अहिंसा या इन भावनाओं को मन में दृढ़ करना मानसिक अहिंसा की भाव अहिंसा, शारीरिक या द्रव्य अहिंसा से अधिक महत्त्वपूर्ण साधना का अग है। यह भाव निम्न श्लोक में सुन्दर रूप है। क्योंकि मन से अहिंसक अथवा शान्त हुए बिना बाह्य से व्यक्त हुआ है : जीवन में हिंसा का सम्यक् त्याग संभव नहीं है। सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं भाव अहिंसा या मानसिक अहिंसा की साधना क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । . (१) सर्वत्र आत्म दर्शन का अभ्यास - इस पारमार्थिक माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ सत्य को बार-बार विचार द्वारा मन में बिठाने का प्रयत्न सदा ममात्मा विदधातु देव ! | २८ अहिंसा परमो धर्मः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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