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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि अहिंसा परमो धर्मः । स्वामी ब्रह्मेशानन्द संपादक, वेदान्त केसरी 'अहिंसा' सभी धर्मों का मूलतत्व है। जैन, बौद्ध एवं वैदिक धर्म में अहिंसा को श्रेष्ठ धर्म माना है। अहिंसा का स्वरूप क्या है? अहिंसा के प्रकार कितने हैं? अहिंसा अपनाने में क्या-क्या समस्याएँ हैं? आदि सभी प्रश्नों का समाधान दे रहे हैं - स्वामी श्री ब्रह्मेशानंद जी। स्वामी जी का यह आलेख जैन, वैदिक, बौद्ध दर्शन – त्रिवेणी की धारा को प्रस्फुटित कर रहा है। - सम्पादक प्रस्तावना मानव-जाति की हजारों वर्ष की संस्कृति और सभ्यता के बावजूद आज भय और हिंसा हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग बने हुए हैं। हमने इन्हें जीवन पद्धति का अनिवार्य और स्वाभाविक अंग मान लिया है। भले ही हम किसी की हिंसा न करते हों लेकिन द्वेष, घृणा, दूसरों के दोष देखना आदि हमारे मन में विद्यमान हैं। युद्ध, हत्या और अपराध के समाचारों में हमारी तीव्र रुचि हमारी हिंसक प्रवृति की ओर स्पष्ट संकेत करती है। लेकिन आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारत में अहिंसा पर आधारित समाज रचना के दो महत्वपूर्ण प्रयोग हुए थे। वर्धमान महावीर द्वारा प्रवर्तित जैन धर्म ने अहिंसा को जीवन का केन्द्र बिन्दु मानकर मानवों की ही नहीं बल्कि छोटे से छोटे कीड़े तक की हत्या को त्याग कर मानव जाति को विकास के एक उच्चतर सोपान तक उठाने का प्रयास किया था। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अंगीकार कर अहिंसा को एक राजधर्म के रूप में स्वीकार किया था। लेकिन अहिंसा प्रधान जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव ने एक ओर जहाँ समाज को एक उच्चतर दिशा प्रदान की, वहीं दूसरी ओर उसने समाज को दुर्बल भी किया। अहिंसा उच्चतम आदर्श है और किसी भी समय किसी भी समाज में एक अल्पसंख्यक वर्ग ही उस उच्चतम आदर्श का अधिकारी और ग्रहण करने में समर्थ होता है। अनधिकारी तथा सारे समाज के द्वारा स्वीकार किए जाने के कारण भारत की अवनति ही हुई जिसके फलस्वरूप भारत को हजार वर्षों की दासता सहन करनी पड़ी। पातंजल योग सूत्र के अनुसार अहिंसा पाँच यमों में पहला और सबसे महत्वपूर्ण है। वैसे तो अष्टांग योग का एक अंग होने के कारण अहिंसा एक साधन मात्र है लेकिन यह इतना महत्वपूर्ण है कि इसे यदि लक्ष्य एवं परम धर्म मानें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। व्यास देव के अनुसार अन्य सभी यम नियम का मूल अहिंसा ही है तथा वे अहिंसा की सिद्धि हेतु होने के कारण अहिंसा प्रतिपादन के लिए ही शास्त्र में प्रतिपादित हुए हैं। सभी धर्मों में इसे महत्व दिया गया है तथा अहिंसा को किसी न किसी प्रकार से अपने जीवन में स्थान दिए बिना धार्मिक जीवन संभव ही नहीं है। अतः इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त एवं जीवन के अनिवार्य अंग को भलीभाँति समझ लेना परम आवश्यक है। अहिंसा का अर्थ सामान्यतः हिंसा का अर्थ है - दूसरे को मारना या कष्ट पहुँचाना और अहिंसा का अर्थ है किसी को कष्ट न २४ अहिंसा परमो धर्मः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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