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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
हमारा अहंकार इसमें एक बहुत बड़ी बाधा बनकर खड़ा हो जाता है । आलोचना वही कर सकता है जो अपने अहं को निरस्त करने में सक्षम हो ।
आलोचना से हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती है। सारे झगड़े और क्लेश मिट जाते हैं। आलोचना हमारे घर के अन्दर आने वाली कटुता को भी शान्त कर देती है । जब आप अपनी भूलोंको, अपने दोषों को अपने बड़ों के सामने स्वीकार कर लोगे तो वे आपको क्षमा कर देंगे । घर में पुनः माधुर्य उतर आएगा। घर पुनः घर बन जाएगा।
लेकिन आज हम अपनी भूल मानने को तैयार नहीं होते हैं। इसी के परिणाम स्वरूप घर टूट जाते हैं। समाज बिखर जाते हैं। समाज का अर्थ है समान जाति, कुल और विचारधारा के लोगों का, परिवारों का समूह । जहाँ समूह है वहां भूल होना बहुत सहज है । मन मुटाव होना सहज है। उसे दूर करने के लिए आलोचना एक सूत्र है । आप अपनी भूल स्वीकार करेंगे। दूसरा अपनी भूल स्वीकार करेगा तो विवाद समाप्त हो जाएगा। •••
भक्ति की रीति
भक्ति की यह रीति नहीं कि मन कहीं रहे और तन कहीं रहे। अक्सर होता यही है। हम देह से मंदिर में बैठे होते हैं, सामायिक में बैठे होते हैं पर हमारा मन कहीं ओर भटक रहा होता है। जुबान पर आराध्य की स्तुति होती है परन्तु मन कहीं व्यवसाय में उलझा होता है । यह भक्ति की रीत नहीं है । भक्ति में हमारे तीनों योग एकाग्र होने चाहिए, समरस होने चाहिएं, तभी भक्ति हो सकेगी।
विशृंखलित योगों से की गई भक्ति हमें कर्ममुक्त नहीं कर पाएगी। हमारी आत्मा कोई ऐसा वस्त्र नहीं है जिसे झाड़ दो तो उस पर जमी धूल गिर जाएगी। ऐसे सामान्य बन्ध भी हैं जो हल्के से यत्न से आत्मा से दूर हो जाते है । पर जो गाढ़ बन्ध हैं उनके लिए महान श्रम
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अपेक्षित है । वह श्रम भी तभी सार्थक होगा जब हमारे तीनों योग समरस हो जाएंगे। इसी का नाम भक्ति है । •• कार्यात्सर्ग से जीव हल्का होता है
शुद्धिकरण हो जाता है तो हृदय हल्का हो जाता है। हृदय में संतोष आता है। गलती हो गई लेकिन प्रायश्चित करके उस गलती को दूर कर दिया। भूल का प्रायश्चित ले लिया । तो हृदय हल्का हो गया । नहीं तो दिलो-दिमाग पर एक बोझ बना रहता है, हर वक्त एक भार बना रहता है। संकल्प विकल्प आते रहते हैं बार
वार ।
जैसे भारवाहक मजदूर बहुत बड़ा भार उठाकर दूसरी जगह ले जाता है । चलते-चलते मंजिल आ जाती है गन्तव्य पर पहुंच जाता है। भार उतार कर वह हल्का हो जाता है । वैसे ही दोष रूपी भार उतर जाने पर भी व्यक्ति हल्का हो जाता है।
प्रायश्चित भी विशुद्ध होना चाहिए । पूर्ण होना चाहिए। यदि वह विशुद्ध नहीं होगा वह भी एक भार ही बन जाएगा।
इसी प्रकार कार्योत्सर्ग करने वाला व्यक्ति भी हल्का हा है। चलते चलते ठोकर लग सकती है। भूल हो जाती है । उस भूल की शुद्धि के लिए कार्योत्सर्ग है । कायोत्सर्ग करने से जीव हल्का हो जाता
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अप्पा सो परमप्पा
यह जीव सिद्धों जैसा है । यह तत्त्व दृष्टि है । इस पर हम थोड़ा गहराई से विचार करें। जीवत्व में सिद्धत्व है । जैसे बीज में वृक्ष छिपा होता है ऐसे ही जीव में सिद्धत्व छिपा है । आत्मा में परमात्मा छिपा है । एक दिन हमारा आत्मा ही परमात्मत्व को उपलब्ध होता है। जैन
प्रवचन - पीयूष कण
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