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________________ सुमन वचनामृत वैराग्य भावना की आराधना किये बिना कोई भी जिस क्रिया में प्राण रहता है वही क्रिया हमारे जीवन पुरुष मुक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। का उद्धार और कल्याण करने में और हमारे मन को, विराग का अर्थ - विषयों से मन का भर जाना. जीवन को मोड़ने में समर्थ रहती है। जब तक हमारी मन का तप्त हो जाना है। संसारेच्छा/भौतिक पदार्थों की क्रियायें प्राणवान् नहीं रहती, विवेक और ज्ञानपूर्ण नहीं इच्छा न रह कर चित्त में मोक्षाभिलाषा का उत्पन्न होना. रहती, तब वे जड़ कहलाती है। उसी का नाम है - विराग। (वैराग को संवेग के नाम से जब हम केवलमात्र ज्ञान को प्रमुखता देते हैं। क्रिया पुकारा जा सकता है। संवेग यानि “संवेगो मोक्षाभिलाषा" । को गौण कर देते हैं, तब ज्ञान और विचार पक्ष प्रबल हो आत्मा का मोक्षाभिमुख प्रयत्न संवेग है। जाता है, वहाँ करने-कराने को कुछ नहीं रहता और चिरकाल तक भोगों को भोग लेने पर भी जीव की केवल वचनों की, वाणी की ही मारोमार है। तृप्ति नहीं होती। तृप्ति के बिना, चित्त रिक्त/खाली और ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मक्ति होती है और उत्कंठित रहता है जैसे - ईंधन से अग्नि। सहस्रों वही मूल मार्ग हमने छोड़ दिया। फिर मुक्तावस्था कैसे नदियों से समुद्र की तृप्ति नहीं होती, वैसे-ही जीव काम- आयेगी? कर्म आवरण कैसे दूर होगा? अन्तरज्योति कैसे भोगों, शब्दादि से तृप्त नहीं होता। इसके लिए वैराग्य का प्रकट होगी? नहीं होगी। फलतः ऐसे जीव के लिये जो शीतल जल ही शांति दे सकता है। शुष्क ज्ञानी और जड़ क्रियावान् है न तो मोक्ष है और न धीर पुरुष और वैराग्य युक्त पुरुष स्वल्प शिक्षावाला, ही मोक्ष का मार्ग है उसके लिये। ज्ञान वाला होते हए भी सिद्ध हो जाता है लेकिन विराग ___ जब अपने पर भरोसा नहीं है तो फिर परमात्मा पर विहीन, सर्वशास्त्रों का ज्ञाता होता हुआ भी सिद्धि को __ भरोसा कैसे आयेगा? फिर संभ्रांत, दिशा विमूढ़ की भांति प्राप्त नहीं कर सकता। इतस्ततः संसार में भटकते रहोगे। इसलिये आत्मा पर वैराग्य युक्त पुरुष कर्मों से मुक्त होता है। (विरागस्य विश्वास होना अति आवश्यक है। जहाँ आत्मा का अस्तित्व भावः वैराग्यम्) है, वहाँ पर लोक का अस्तित्व है, लोक है तो वहाँ कर्म वैराग्य है, तो नियत अच्छी रहती है। जिसकी का अस्तित्व है, कर्म है वहाँ क्रिया भी है। नियत अच्छी है, उसमें विराग आ जाता है, जिसका मन विषयों से उपरत हो गया - शब्द, गंध, रस, रूप, स्पर्श की आसक्ति छट गई, उसे वैराग्यवान् कहते हैं। तप/त्याग केवल मात्र उपवास करने से इन्द्रियाँ वश में नहीं होती, किन्तु उपयोग हो तो, विचार सहित हो तो वश में क्रिया होती है, जिस तरह बिना लक्ष्य का बाण निरर्थक जाता है किसी भी क्रियानष्ठान को करने से पहले. उसकी उसी प्रकार बिना उपयोग के तप (उपवास आदि) भी विधि का, उसके स्वरूप का और उसमें लगने वाले जो लाभदायक नहीं होता। दोष हैं, उसमें रहने वाली जो त्रुटियाँ हैं, उनकी जानकारी तपः क्रिया मान-सम्मान, यशो-कीर्ति आदि ईहलोक पहले कर लेनी चाहिये। और परलोक के लिये नहीं, बल्कि कर्म-निर्जरा, कर्मक्षय, | सुमन वचनामृत ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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