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________________ सुमन वचनामृत ज्ञान के नेत्र खोलो, उसके बिना वस्तुस्थिति की गंतव्य तक पहुँच जाता है। वास्तविकता मालूम नहीं होगी। केवल वाणी के गुलाम त्याग और वैराग्य के अभाव में अगर किसी को मत बनो, वाणी का अहंकार भी मत करो। ज्ञान हो जाये, तो वह ज्ञान मिथ्या रहता है। किसान बीज बोता है, किन्तु बीज बोने से पहले सम्यक्ज्ञान, विचार दृष्टि के अतिरिक्त कोई कानून, धरती को उर्वरा बना लेता है, उसे जोतता है, दाना बाद कोई सत्ता इस विषमता की खाई को पाट नहीं सकती, में डालता है। धरती को उर्वरा किये बिना, कितना भी इसलिये बहुत आवश्यक है कि व्यक्ति के पास परमार्थ बढ़िया बीज वह इस धरती में डालेगा, नष्ट हो जायेगा। दृष्टि आनी चाहिये। बस यही स्थिति है हमारी भी। सुना, पढ़ा, सीखा गया ज्ञान, गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान, तब तक अच्छा नहीं आत्मज्ञान के बिना, कितनी भी पुण्य की क्रियाएँ या लगता, जब तक उसके लिये हमारे हृदय की भूमिका/ धर्म या धर्म की क्रियाएं कर ली जाय फलहीन हो जाती मानस भूमि तैयार नहीं होती। जो ज्ञान महानिर्जरा का हेतु है, वह ज्ञान अनधिकारी समदर्शी का अर्थ है - बराबर देखने वाला। व्यक्ति के हाथ में आने पर अहितकारी हो जाता है। छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, अपना-पराया, उन्हें देखने के जो भाव हैं अन्तरदृष्टि है, वह उनके प्रति यथार्थ, पक्षपात ___ पढ़े हुए, सुने हुए ज्ञान पर चिंतन नहीं हो, विचारों रहित होनी चाहिये। बस इसी को कहते है - समदर्शिता । का मंथन न हो तो तत्त्व हृदयंगम नहीं होता। सम्यकदृष्टि वही है जिसका मन प्रतिकूल परिस्थिति प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते। में उत्तेजित. अनकल परिस्थिति में हर्षित नहीं होता। न इसी प्रकार ज्ञान और मोह एक साथ नहीं रह सकते।। हर्ष में सग होता है न उत्तेजना में द्वेष । ज्ञान दशा का सबसे बड़ा लक्षण निर्मोह स्थिति है। ___ समदृष्टि पुरुष परस्पर विरोधी वस्तु को भी जानता/ निज ज्ञान के प्रकट होने पर मोहक्षय हो जाता है। समझता हुआ उस पर राग व द्वेष नहीं करता। जैसे शत्रु जब तक आत्मा 'मैं' और 'मेरे' में उलझा रहता है। और मित्र/अनुकूल और प्रतिकूल/इष्ट और अनिष्ट इन सर्व तब तक सच्चाज्ञान नहीं होता। यह 'अहन्ता/ममता' की को जानता है, ज्ञाता है। किन्तु समवृत्ति के कारण रागादि स्थिति है। से कर्म-बंध नहीं करता। ज्ञानोपदेश देना सरल है, किन्तु जीवन में उसका समदृष्टि मोही नहीं है, अतः उसे दुख नहीं होता। आचरण अति कठिन है, कहना छोड़कर करना सीख ले, जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह को नष्ट कर दिया, तो व्यक्ति विष को भी अमृत रूप में बदल सकता है। अकिंचन है, जिसके लोभ नहीं है उसने तृष्णा का नाश यही सन्त वाणी है। कर दिया, वह अकिंचन है। जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभा का ही नाश कर दिया है। जहाँ तेरे मेरे का भाव मिट जाता है, आत्मज्ञान प्रकट हो जाता है तो व्यक्ति सन्मार्ग की ओर बढ़ता ही सभी जीव जीना चाहते है, मरना नहीं। सबको सुख जाता है, वह मार्ग में कभी भटकता नहीं, अपने लक्ष्य/ प्रिय है, दुख अप्रिय । जो उससे निवृत्त होता चला जाता सुमन वचनामृत ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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