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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
इतने कम शब्दों में श्री सुमनमुनि जी ने तपस्वी वाग्सिद्धि प्राप्त हो गई थी और गुरु के प्रति तो उनमें महाश्रमण के मानो सम्पूर्ण जीवन का जीवंत चित्रांकन कर । इतना अधिक भक्ति-भाव था कि सन् १६१६ में जब दिया है।
उन्हें मालूम हुआ कि श्रद्धेय आचार्यश्री महाराज का स्वास्थ्य विरक्ति का भाव
अचानक खराब हो गया है तो वे तुरंत गुरुदेव की सेवा
हेतु रवाना हो गए। उस समय सारे देश में अंग्रेजों द्वारा एक छोटी सी घटना ने आपके हृदय में संसार से
लागू रोलट ऐक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह चत्व रहा था तथा विरक्ति उत्पन्न कर दी। बचपन में पतंग उड़ाते समय
सरकार ने सर्वत्र मार्शल लॉ घोषित कर दिया था। उनके एक चील उस पतंग की क्षुरधारा-सी डोर की लपेट में आ
सभी साथी श्रमणों व भक्तों ने बहुत मना किया परंतु वे गई, उसका एक डैना-पंख उसी समय कट गया और वह
निर्भीक होकर चल पड़े तथा सभी आपदाओं को सहन लहुलुहान होकर गिर पड़ी, उसका जीवन क्षत-विक्षत हो
करते हुए गुरुदेव के समीप पहुंच गये। गुरुदेव भी उन्हें गया। उसकी मृत्यु ने इनके करुणार्द्र हृदय में विरक्ति का
उस परिस्थिति में पहुंचने पर आश्चर्यचकित रह गये। भाव उत्पन्न किया और उस भावना ने चरम रूप लिया कलानौर में जब वे अकस्मात् ही पूज्यवर श्री सोहनलालजी
तपस्वी जीवन महाराज का प्रवचन सुनने पहुंच गये। गुरुदेव की मेघ
जैसा कि ऊपर इंगित किया जा चुका है कि श्री गर्जन-सी गम्भीर, कोयल-सी मधुर किन्तु योगी-सी ओजपूर्ण गैंडेरायजी महान तपस्वी संत थे। लेखक ने उनके तप का वाणी सुन कर वे मंत्र-मुग्ध हो गए और उनके एक भी बड़ा ही मार्मिक वर्णन इस ग्रन्थ में किया है। उसे प्रवचन ने ही उनके जीवन में क्रान्ति का सूत्रपात कर संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है - दिया। उस समय उनकी उम्र मात्र २० वर्ष थी। उन्होंने
१. उन्होंने वृतिसंक्षेप, अवमौदर्य, उपधि आदि तप किया। वहीं पर दीक्षा का दृढ़ संकल्प ले लिया कि मैं अब घर
उन्होंने १२ वर्षों तक शरीर पर मात्र एक चादर, वापिस नहीं जाऊंगा। जाति के वे थे कुम्हार/कुम्भकार/ प्रजापति पर जैन धर्म में तो जाति का कोई बंधन नहीं
एक चुल्लपट (तेड़ का वस्त्र) तथा अपने साथ में
मात्र तीन पात्र ही रखे। वे एक ही पात्र में गोचरी है। लोकप्रिय कवि श्री हरजसराय ने जैन धर्म की इस
में प्राप्त आहार सम्मिलित करके बिना किसी रसास्वादन विशेषता को बताते हुए लिखा था -
के ग्रहण करते थे। "जाति को काम नहीं जिन मारग,
२. उनका भोजन सादा, नीरस व परिमित था। वे दूध, संयम को प्रभु आदर दीनो।"
दही, घी व मिष्ठान्न पदार्थ नहीं लेते थे किन्तु मात्र वे पुनः अपने घर पर नहीं गये। गुरुदेव श्री सोहनलालजी
पारणे के दिन दूध ले लेते थे। महाराज ने ही उन्हें श्रमण-दीक्षा प्रदान की।
३. पर्व तिथि में पाद विहार होने पर भी उपवास आदि गुरु-सेवा की भावना
तथा अनेक बार दो, तीन, चार, पाँच व आठ श्री तपस्वीजी अनेक गुणों से सम्पन्न थे। श्रमण उपवास करते थे। आपने सर्वाधिक २१ उपवास व जीवन अंगीकार करने के बाद उन्होंने अपना सारा समय १०० आयम्बिल व्रत किये हैं। प्रति वर्ष संवत्सरी गुरु-सेवा, ज्ञानाराधना, त्याग व तपस्या में बिताया। उन्हें के बाद पाँच उपवास (पंचोला) किया करते थे।
अनोखे तपस्वी
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