SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वंदन - अभिनंदन ! के पश्चात् रात्रि में आपश्री के पास बैठकर बहुत कुछ | रीता का रीता ही रह जाता है।" जानने समझने का अवसर मिला। आपकी वार्तालाप “वास्तव में दीक्षा का स्वरूप है/मिथ्यात्व का मिटना, शैली, प्रवचन शैली एवं सम्मेलन के समय शांतिदूत की सम्यक्त्व का जगना/अज्ञान का खोना, ज्ञान का पाना / भूमिका का निर्वाहन करते समय समस्याओं के समाधान असंयम से अलग, संयम से संलग्न/ममता से मुड़ना, समता की शैली से मैं बहुत प्रभावित हुआ। श्रमणसंघ के अनेक से जुड़ना/स्व में बसना, पर से हटना ही दीक्षा का चरितार्थ महापुरुषों के बीच आपका भी अपना एक निराला ही होना है। वर्चस्व है। ऐसी दीक्षा दिन, महीना या वर्ष की ही नहीं किंतु दीक्षा स्वर्णजयंति के पावन प्रसंग पर मैं भी आपका एक घंटे के लिए भी आ जाय तो जानो, समझो, जीवन हार्दिक अभिनंदन करते हुए प्रसन्नता का अनुभव कर रहा में एक मूल्यवान् उपलब्धि है।" हूँ। आप दीर्घायु हो, स्वस्थ-प्रसन्नता के बीच जिनशासन श्रमणसंघीय सलाहकार मंत्रीप्रवर श्री सुमनमुनिजी की अजेय वैजयंती-पताका लहराते रहें, यही सद्भावना ! अपने संयमी जीवन के पचास वसंत पूरे कर रहे हैं। यह मुनि प्रकाशचंद्र 'निर्भय' (एम.ए.) अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण बात है। जीवन को गौरवान्वित करने का सुष्ठ योग है। श्रमणसंघ में आप अनेक पदों से विभूषित हैं। साहित्य क्षेत्र में भी आपका काफी अच्छा आन्तरिक शुभाशंषा योगदान रहा है। कई सैद्धान्तिक पुस्तकों के साथ साथ प्रवचन-ग्रंथ, कई महानों की जीवन गाथाएँ तथा इतिहास “दीक्षा का शब्द बड़ा प्यारा शब्द है। दीक्षा का शब्द के संबंध में भी आपकी लेखनी चली है। जन सामान्य में जब भी कर्णगोचर होता है तो मन प्रफुल्लित हो उठता प्रचलित एवं व्याप्त व्यसनों व रूढ़ियों आदि बुराईयों से है। जब वही शब्द साकार रूप में, प्रयोगरूप में अभिव्यक्त मुक्त करने में भी आप तत्पर रहे हैं। इस प्रकार अपनी होता है तो उसके आनंद की बात तो शब्दातीत हो जाती साधना के साथ साथ अन्य लोगों को भी पापों से बचाने है। उसका आनंद अनुभूतिमूलक ही होता है।" में निमित रहे हैं। “दीक्षा वेश-भूषा का परिवर्तन मात्र ही नहीं है। जैन समाज के कई लोग पचास वर्ष के उपलक्ष्य में एक ही जिंदगी में वेशभूषा तो अनेकों बार बदल दी अथवा किसी व्यक्ति मुनिवर, संस्था, पत्रिका आदि के जाती है। इतने मात्र से दीक्षा का प्राणतत्त्व आत्मा में नहीं प्रसंगो को लेकर स्वर्ण जयंतियों का आयोजन करते रहे उतर पाता। उसका भावार्थ जीवन में घटित नहीं हो हैं। त्यागी व संयमी आत्माओं की स्वर्ण जयंती का आयोजन पाता। जिस धरती पर खड़े-बैठे वहीं के वहीं वैसे के वैसे अपने आप में विशेष महत्त्वपूर्ण है। यह आयोजन त्यागही रह गये। जीवन में किसी तरह का नया परिवर्तन नहीं संयम का प्रतीक बने। अन्य लोगों को भी कुछ जानने आया। वही पुरानी मोह-ममता की वृत्तियां क्रीड़ाएँ करती सीखने व समझने की प्रेरणा मिले। सामाजिक व्यवहारिक रहीं। कषायानुरंजित भावनाएं चलती रहीं, पलती रही | शुभ प्रवृत्तियों के साथ-साथ समाज और राष्ट्र का जीवन और फलती रहीं। ऐसी दीक्षा से आत्मोत्कर्ष का कोई | आध्यात्मिकता की ओर गतिशील बने। यह आयोजन की संबंध स्थापित नहीं हो पाता। आत्मा आध्यात्मिकता से | सफलता में चार चांद लगाने जैसा उपक्रम होगा। E Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy