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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
बाबा स्वरूपनाथ जी । गिरधारी को आश्रय प्राप्त हो गया । मठ की देखरेख करना गिरधारी का कार्य बन गया ।
बाबा स्वरूपनाथ गिरधारी पर अत्यन्त विश्वास करने लगे। इन्हीं दिनों कुम्भ का मेला आ गया । कुंभ के मेले में स्वरूपनाथ जी भी गये । जाते-जाते मठ का सारा दायित्व गिरधारी के हाथों सुपुर्द कर गये ।
गिरधारी मठ की निगरानी रखने लगा और निकटवर्ती मोहल्लों से भिक्षा लाकर जीवन यापन करने लगा । इसी आश्रम में उसके दो और अभिन्न संगी-प्राणी थे - एक गाय और दूसरा श्वान । गाय को गिरधारी चारा-पानी देता और श्वान को भिक्षांश ।
प्रलोभन भी झुका नहीं पाया
मठ के समीप ही आर्य समाज का मंदिर था । पण्डित श्री हरीशचंदजी उसके व्यवस्थापक थे । अनायास ही एकदा गिरधारी की उनसे भेंट हो गई। उन्होंने कहा कि - गिरधारी । क्यों बाबा - नाथ लोगों के चक्कर में फंसे हो, ये लोग तो व्यसनी हैं । मदिरापान, मांसाहार में ही आनंद मानते है । इनकी कुसंगति से तुम्हारी भी जिंदगी खराब हो जाएगी।”
गिरधारी ने कहा- मैं आप सभी की सद्भावनाएं समझ रहा हूँ किन्तु मैं विवशता के कारण इन्हीं के साथ रह रहा हूँ क्यों कि मुझे कोई उचित स्थान मिला ही नहीं ।
आर्य समाज सभा के अध्यक्ष डॉ. लालचंद अरोड़ा ने भी गिरधारी से कहा- उचित स्थान हमारे यहाँ मिल जाएगा। हम तुम्हें पढ़ा लिखाकर विद्वान् बना देंगे । ”
गिरधारी का मानस इनकी निंदा - कथा से पूर्व परिचित था ही अतः वह मूक बना रहा और मठ की ही देखरेख में संलग्न रहने लगा ।
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चरण-शरण हेतु उत्कण्ठित मन
इसी अन्तराल में जैन समाज के वरिष्ठ सदस्यों लाला दुर्गादासजी, लाला रूपचंद जी, लाला पन्नालालजी, लाला सरदारी लाल जी, लाला नगीन चंदजी, लाला भगवानदास जी, शांतिकुमार जी जैन से गिरधारी का परिचय होता गया और वह परिचय घनिष्ठता में परिवर्तित हो गया । इन महानुभावों ने भी समय-समय पर गिरधारी को सचेत किया था कि गिरधारी ! दुर्व्यसनों के दल-दल से बच निकलो और जैन मुनिराजों की शरण में जाओ । वे अत्यन्त क्रियार्थी होते है, स्वयं भी सद्गुणों से युक्त होते
तथा दूसरों को भी सद्गुणों की राह बताते हैं । तुम उन्हीं के चरणों की शरण लो ।
गिरधारी ने पूछा- अभी जैन मुनिराज कहाँ विचरण कर रहे हैं ?
लाला लोगों का उत्तर था - युवाचार्य श्री शुक्लचंदजी म. अभी अपने शिष्यों के साथ शाहकोट में विराजमान हैं । गिरधारी का मानस जैन संतों की चरण-शरण को पाने हेतु उत्कंठित हो उठा ।
जीवन बन जाएगा महाजीवन !
एक दिन गिरधारी ने सुलतानपुर से विदा ली और “लोइयां” (जंक्शन) ग्राम पहुँचा । वहाँ महात्मा गंगागिरीजी कामठ / डेरा था । दो-तीन दिन वहाँ रहा । मठ में विराजित महात्मा 'भारती जी' से उसकी भेंट वार्ता हुई । गिरधारी ने सविस्तार घटनावृत्त कह दिया और यह भी कह दिया कि वह अब दृढ़ संकल्पित है जैन मुनिवर की सन्निधि पाने को । महात्मा भारती जी ने भी यही सलाह दी कि जैन संत निःस्पृह होते हैं तथा उनमें कोई व्यसनादि के दुर्गुण नहीं होते। वे मात्र स्व-पर के कल्याण में निहित होते हैं, अतः उनकी सन्निधि में तुम्हारा जीवन, जीवन ही नहीं अपितु महाजीवन बन जाएगा । .... तीन दिन के बाद...
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