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________________ अथातो जीवन - जिज्ञासा -भद्रेशकुमार जैन कुछ लिखना है मुझे.... सीख पाता । उद्दाम यौवन, खिलखिलाती, मुस्कुराती पुष्पों माम्बलम के भव्यातिभव्य अति विशाल श्री जैन की छटा को मैं अपलक, निर्मिमेष निहारता रहता हूँ...। स्थानक भवन की सर्वोपरि मंजिल पर मैं परिभ्रमण करता ___ इस छवि को कई लोग केमरों की दृष्टि में कैद करते जा हुआ भवन के आस-पास खड़े उच्च एवं विशाल वृक्षों की रहे हैं - स्थायित्व देने के लिए। शायद इन कलियों का रमणीय छटा/शोभा निहारता ही रहता हूँ यदा-कदा। यौवन, जीवन वहीं ठहर जाए...। कभी-कभी तो प्रकृति प्रदत्त इस छवि से दृष्टि हटाने का अंतर सुमन सुमन में मन भी नहीं होता। अपलक दृष्टि से मनमोहक छटा दूसरे ही पल सोचता हूँ क्या इनका जीवन स्थायी निहारता ही रहता हूं। वृक्षों में फूलों के स्तबक/गुच्छे मुझे है? अंतर्मन ने कहा-“नहीं” । कलियाँ खिली, कोई हाथ अति आनन्दित करते हैं। चंपा वृक्ष के फूल, गुलमोहर के बढ़ा और तोड़कर ले गया या अपना जीवन पूर्ण कर वे पुष्प तथा विशालकाय खड़े नीम चम्पा वृक्षों के पुष्प ही फूल धूल में स्वतः ही मिल जाते हैं। प्रकृति ने इनकी गुल्म! घूमता हुआ नीचे मटमेली धरती पर नजर डालता हूँ सुरक्षा के लिए काँटे भी दिए परंतु व्यक्ति चुरा ही लेता तो इन्हीं वृक्षों के नीचे फूलों से लदा आंगन देखकर मन हैं इन्हें, अपना हाथ बचाकर ! मैंने कितने ही सुमनों की मायूस हो जाता है। झर गए सव, कुम्हला गए ! खत्म हो छटा देखी होगी, सुमनों की सौरभ पाई होगी परंतु.... गया - जीवन ! एक सुमन ऐसा भी है जो चल रहा है, बोल रहा है, परंतु भवन के प्रथम मंजिल के भीतरी प्रथम कक्ष में जिसकी छटा ही निराली है। उसका मानस फूल से भी एक सुमन को निहारता हूँ तो बार-बार विचार कौंध जाता अति कोमल है। उसकी सौरभ कभी भी समाप्त नहीं है, मन मस्तिष्क में; कुछ लिखना है इस सुमन के बारे में, होती। उसका जीवन धूल में नहीं मिलेगा, पूजनीय बन झांकना है - इस सुमन के जीवन में। जाएगा। हो गए न, आश्चर्य चकित। कौन है वह सर्वत्र सुमन ही सुमन....! सुमन? धैर्य रखिए। उसका परिचय। उसका जीवन बताने के लिए ही तो कलम उठाई है। सुमन ! सुमन !! सर्वत्र सुमन ही सुमन !!! भँवरें आ रहे हैं स्वतः ही आकर्षित होकर, पराग पान के लिए। सुरभित करता सुमन.... अद्भुत प्रकार के, अनेक प्रकार के सुमन ! कितनी ही हाँ, तो वह सुमन है, श्रमणसंघीय सलाहकार मंत्री जातियाँ-प्रजातियाँ। सभी को आकर्षित करते हैं सुमन ! मुनि श्री सुमन कुमार जी महाराज ! जो जैन-समाज में मनभावन हैं ये सुमन ! सुमन की घ्राणरन्ध्रों में खुशबू अपनी सुरभि बिखेरता, फैलाता, अनवरत यात्रा करता, प्रविष्ट होते ही मैं अलौकिक आनन्द का अनुभव करता अपनी खुशबू (गुण) से दूसरों को भी सुरभित करता हूँ। दुनिया से दूर ! झंझटों से दूर....! प्राकृतिक दुनियाँ अपने लक्ष्य की ओर संलग्न है। इस यात्रा को पचासवां में व्यामोहित हो गया हूँ मैं। रंग बिरंगे फूलों की कोमलाङ्गी वसन्त प्रारंभ होने जा रहा है - आसोज शुक्ला त्रयोदशी पंखुरियाँ को निहारता हूँ मुझे अद्भुत छवि , खिलखिलाहट को ! इस सुमन की प्रव्रज्या, दीक्षा की बात करने से पूर्व दृष्टिगोचर होती हैं उनमें । कहाँ से वर्ण आया इनमें, कहाँ आईये आपको ले चलूँ एक पावन पुण्यशालिनी धरा की से गंध, कहाँ से कोमलता ? काश ! मानव भी इनसे कुछ ओर.... । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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