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________________ श्रमण परंपरा का इतिहास दिल्ली स्थित श्री हुक्मीदेवी जी और आर्या राजकली जी का भी विलय इसी परम्परा में) अतः प्रथम इसी परम्परा का उल्लेख उचित है। श्री मेलोजी जाति से ओसवाल थी। आपका जन्म गुजरांवाला में वि.सं. १८८० में हुआ। आपके पिता का नाम श्री पन्नालाल जी था। २१ वर्ष की आयु में वि.सं. १६०१ में श्री मूलांजी की नेश्राय में कान्धला में आपने दीक्षा ग्रहण की थी। आप बालब्रह्मचारिणी थीं। स्वाध्याय, सेवा और तपस्या में आपकी विशेष रुचि थी। पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान आदि प्रदेशों में आपने विचरण किया। ८४ वर्ष की दीर्घ आयु और ६३ वर्ष की दीक्षा पर्याय पालकर वि.सं. १६६४ में रायकोट में समाधि सहित आपने देहोत्सर्ग किया। आपकी दो शिष्याएं थीं - (१) श्री चम्पा जी (वि.सं. १६२८) (२) महार्या श्री पार्वती जी (१०) प्रवर्तिनी महार्या श्री पार्वती जी महाराज आपका जन्म आगरा के निकटवर्ती ग्राम भोड़पुरी में वि.सं. १९११ में श्रीमान बलदेव सिंह चौहान (राजपूत) की धर्मपली श्रीमती धनवन्ती की रत्नकुक्षी से हुआ। मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में आपने वि.सं. १६२४ चैत्र सुदी १ को श्री हीरादेवी जी म. से कान्धला के निकट एलम गांव में दीक्षा ली। आप आगमों की अध्येता बनीं। आगरा में श्री कंवरसैनजी महाराज ने आपको आगम अध्ययन कराया। कालान्तर में वि.सं. १६२६ अथवा १६३० में आपने अपना सम्बन्ध पंजाब परम्परा की साध्वियाँ श्री खूबांजी, श्री मेलो आदि से जोड़ लिया। आप श्री मेलोजी की शिष्या के रूप में विख्यात हुईं। पंजाब में आपकी विद्वत्ता और प्रवचनकला की अच्छी धाक थी। आप कवयित्री, लेखिका और तपस्विनी भी थीं। आपने राजस्थान प्रदेश की भी यात्रा की । आपके प्रभावक व्यक्तित्व को देखते हुए आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज ने लुधियाना नगर में ४१ संतों, २५ सतियों तथा ७५ नगरों के श्रीसंघों के समक्ष आपको प्रवर्तिनी पद प्रदान किया। आपकी चार शिष्याएं हुईं – (१) श्री जीवोजी (वि.सं. १६३६) (२) श्री कर्मो जी (वि.सं. १९३८) (३) श्री भगवान देवी जी (वि.सं. १६४३) (४) श्री राजमती जी (वि.सं. १९४६)। वि.सं. १६६६ माघ कृष्णा ६ को जालंधर में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी प्रथम दो शिष्याओं की वर्तमान में शिष्य परम्परा नहीं है। थी भगवान देवी जी की चार शिष्याएं हुई - (१) श्री मथुरोजी (२) श्री पूर्ण देवी जी (३) प्रतिभासम्पन्न श्री द्रौपदांजी (४) श्री लक्ष्मीजी। श्री द्रौपदांजी की चार शिष्याएं हुईं - (१) श्री धन्न देवी जी (२) श्री मोहनदेवी जी (३) श्री धर्मवती जी (४) श्री हंसा देवी जी। श्री धन देवी जी की चार शिष्याएं हुईं – (१) श्री शीतलमति जी (२) श्री मनोहर मति जी (३) श्री धर्मवती जी (४) श्री लोचनमति जी। श्री शीतल मति जी की एक शिष्या हुई - उप.प्र. श्री कैलाशवती जी म.। इनकी पांच शिष्याएं हुई - (१) चन्द्रप्रभाजी (२) कुसुमप्रभाजी (३) श्री शशी प्रभा जी (४) श्री ओमप्रभा जी (५) श्री पद्मप्रभाजी। वर्तमान में इन साध्वियों की शिष्या-संख्या १८ के लगभग है। श्री मनोहरमति जी की तीन शिष्याएं हुई - (१) श्री सुदर्शनामति जी (२) श्री तिलका सुन्दरीजी (३) श्री | पंजाब श्रमणी परंपरा ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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