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श्रमण परंपरा का इतिहास
देते। कोई अकेला या असहाय होता तो उसे सहारा और सान्निध्य प्रदान करते । आपने अपने जीवन का अधिकांश भाग सेवा आराधना में ही अर्पित कर दिया।
आप श्री जी ने प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी म. तपोमूर्ति श्री गैण्डेराय जी म., तपस्वी श्री केसरी सिंहजी म. पंजाब केसरी श्री कांशीराम जी म. और तपस्वी श्री निहालचन्द्रजी म. इन महापुरुषों की सेवा का सौभाग्य तो स्वयं अपने हाथों से प्राप्त किया तथा इनके अतिरिक्त वयोवद्ध श्री बेलीराम जी म. श्रद्धेय श्री भागमलजी म. श्रद्धेय श्री ताराचन्द जी म., श्रीकपूरचन्दजी म. आदि मुनिवरों की सेवा अपने -शिष्यों, प्रशिष्यों से करवाते रहे। सेवा धर्म की आराधना में आपने कभी भी उदासीनता या उपेक्षा का भाव नहीं रखा। विनम्र समन्वयक :
अपने अनुशासन काल - युवाचार्य, मंत्री और प्रवर्तक जीवन में श्रद्धेय पण्डितजी म. उदार तथा समन्वयवादी बनकर प्रत्येक समस्या का समाधान करते रहे। कोई भी छोटा-बड़ा (साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका) उनके सम्मुख आया, उन्होंने सब को समान रूप से करुणा का प्रीतिदान और आदर देकर उनकी मनः स्थिति को शांति प्रदान की। वे कहा करते थे – “समाज में सबको साथ लेकर चलना ही समाज को जीवित रखने का मूलमंत्र है।"
तत्त्व चिन्तामणि भाग १,२,३, नवतत्त्वादर्श, धर्म-दर्शन आदि आपकी गद्य रचनाएं हैं।
आपके साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि वह सर्वथा सरल और सुबोध है। भाव और भाषा का मणिकांचन योग तथा अत्यन्त रोचक शैली है। आपके लेखन में सरलता, सरसता और सुगमता की त्रिवेणी हिलोरें मारती सी प्रतीत होती है। जटिल से जटिल विषय को अपनी लेखनी के माध्यम से सरल एवं रोचक बना देना यह आपकी अपनी विशेषता है। वि.सं. १६८० से लेकर २००२ तक का समय प्रमुख रूप से आपका साहित्यिक जीवन काल था। जैन रामायण आदि आपके पद्य ग्रन्थ अत्यन्त लोकप्रिय हुए। व्याख्याता लोग अपने प्रवचनों में उसका उपयोग करने लगे। परार्थी-परमार्थी महासाधक
पूज्यवर्य प्रवर्तक श्री जी म. का समग्र जीवन परार्थ और परमार्थ की साधना में अतीत हुआ था। उन्होंने अपने दैहिक सुख-दुख की कदापि परवाह नहीं की। उनका जीवन अग्रवर्तिका की तरह था जो दूसरों को सुरभित करने के लिए स्वयं को तिल-तिल करके जला देती है। स्वयं मिटकर भी वह अपने परिवेश को सुगन्ध से भर जाती है।
अजमेर में मुनि सम्मेलन होने जा रहा था। पूज्य आचार्य भगवन् श्री आनन्द ऋषि जी म. ने पूज्य प्रवर्तक श्री जी को इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए सादर आमंत्रित किया। पूज्यवर्य उपाध्याय श्री अमरचन्द्र जी म. (कवि जी) ने आपको पत्र लिखा कि - "यदि आप अजमेर सम्मेलन में पधारें तो मैं भी प्रयास करूंगा।"
उस समय आप अम्बाला नगर में विराजमान थे। देह रुग्ण थी । अत्यन्त कृश हो गए थे। डाक्टरों ने लम्बे विश्राम का परामर्श दिया था। इसीलिए आपने अपने
उत्कृष्ट साहित्यकार
श्रद्धेय प्रवर्तक श्री जी म. एक महान् संत होने के साथ-साथ उच्चकोटि के साहित्यकार भी थे। आपका व्यक्तित्व साहित्य साधना में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। गद्य और पद्य - साहित्य की इन दोनों विधाओं को अपनाकर आपने दस-पन्द्रह पुस्तकें लिखीं। इनमें से कुछ प्रकाशित हैं और कुछ अप्रकाशित । जैन रामायण, जम्बूकुमार, वीरमति जगदेव आदि पद्य तथा महाभारत,
| प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज
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