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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
पश्चात् आपका संकल्प पूर्ण हो गया। आपको पारिवारिक अनुमति प्राप्त हो गई। शेष चार मित्रों में से तीन भी पारिवारिक अनुमति प्राप्त करने में सफल हुए। एक मित्र- गोविन्दराय पारिवारिक दबाव नहीं झेल सका और उसे वैवाहिक बन्धन स्वीकार करना पड़ा।
आप अपने तीन मित्रों के साथ आचार्यदेव श्री अमरसिंह जी म. के श्री चरणों में पहंचे। आपके प्रशस्त भावों को देखते हए आचार्यश्री ने वि. सं. १६३३. मार्गशीर्ष सदि ५ को अमृतसर नगर में आप और आपके तीन मित्रों को दीक्षा भगवती का महामंत्र प्रदान किया। आचार्यश्री ने आपको तथा श्री शिवदयाल को श्री धर्मचन्द जी म. का और दुल्होराय व गणपतराय को श्री मोतीराम जी म. का शिष्य घोषित किया।
दीक्षित होने के पश्चात् आप सेवा और स्वाध्याय में समर्पित बन गए। आपने जैन दर्शन का गहन गंभीर अध्ययन किया। प्रवचन पाट पर बैठे तो आपकी प्रवचन शैली ने श्रोताओं को मंत्र मुग्ध बना दिया। ज्योतिष विद्या के भी आप पारगामी वेत्ता बने ।
वि.सं. १९५१ चैत्रवदि एकादशी को आचार्य श्री मोतीराम जी म. ने आपको अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। युवाचार्य पद पर आप लगभग सात वर्षों तक प्रतिष्ठित रहे। तदुपरान्त पूज्य आचार्य श्री मोतीराम जी म. के स्वर्गगमन के बाद वि.सं. १६५८ में पटियाला नगर में आप आचार्य पाट पर विराजित हुए। श्रमण परम्परा के सिरमौर पद पर रहते हुए आपने जिन शासन की प्रभूत प्रभावना की। आपका धवल यश पांचाल की प्राचीरों को लांघ कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैल गया। लाखों-लाख सिर आपके पाद-पद्मों पर श्रद्धावनत होते थे।
आपका आगमज्ञान गहन और तर्क शक्ति अद्भुत थी। अनेक बार आपने विपक्षियों से शास्त्रार्थ किया और विजयी बन जिनशासन के गौरव को उन्नत किया।
इस सब के अतिरिक्त आपने संघ-ऐक्य के लिए जो प्रयास किए वे अद्भुत थे। विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त स्थानकवासी मुनियों को आपने एक सूत्र में पिरोने का भगीरथ अभियान चलाया। यह आपके महत्प्रयासों का ही परिणाम था कि तत्कालीन समस्त मूर्धन्य आचार्यों ने आपकी बात स्वीकार की और आपको अपना नेता चुना। कई वर्षों तक आप स्थानकवासी परम्परा के प्रधानाचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। शताब्दियों के बाद यह प्रथम अवसर था जब समग्र स्थानकवासी मुनि एक झण्डे के नीचे एकत्रित हुए और एक आचार्य के आज्ञानुवर्ती बने ।
आपने अपने जीवन काल में कई प्रदेशों की पदयात्राएं की। बाद में दैहिक दशा को देखते हुए आप अमृतसर नगर में वि.सं. १६६२ को स्थानापति हो गए। वि.सं. १६६२ तक आप वहां विराजित रहे। इसी संवत्. में आषाढ़ शुक्ला छठ को प्रातः काल आठ बजे पादोपगमन संथारे सहित आपने देहोत्सर्ग कर दिया।
आपके निधन से जैन समाज की अपूर्णीय क्षति हुई। जैनत्व का दुर्ग ढह गया। भारत वर्ष के कोने-कोने से सहस्रों लोग आपकी देह को अन्तिम विदाई देने अमृतसर नगर में एकत्रित हुए थे।
आप श्री के बारह शिष्य थे। नामावली क्रमशः इस प्रकार है
१. गणावच्छेदक श्री गैंडेराय जी म. २. श्री बिहारी लाल जी म. (सरकार) ३. श्री विनय चन्द्र जी म. ४. बहुसूत्री श्री कर्मचन्द्र जी म. ५. आचार्य श्री काशीराम जी म. ६. श्री ताराचन्द जी म. ७. श्री टेकचन्द जी म. (ब्रह्मर्षि)
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पंजाब श्रमणसंघ की आचार्य परम्परा
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