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________________ श्रमण परंपरा का इतिहास परिवार में वि. सं. १८८३, आश्विन शुक्ल पूर्णिमा के अकस्मात् नहीं होता है। महापुरुष पूर्ण तैयारी के साथ दिन हुआ था। बाल्यकाल से ही आप विरक्त-मानस मृत्यु में प्रवेश करते हैं। इसीलिए महापुरुषों की मृत्यु वालक थे। युवा हए। पर यौवन की तपिश भी आपके मातम के स्थान पर महोत्सव का रूप लेती है। पज्यवर्य हृदय के वैराग्य की रसधार को सुखा न सकी। परिवार आचार्य श्री रामवक्ष जी म. ने भी पूर्ण तैयारी के साथ के आग्रह से विवश हो आपको वैवाहिक बन्धन स्वीकार मृत्यु में प्रवेश किया था। घटनाक्रम यूं हैकरना पड़ा। विवाहित होकर भी आपका निर्बन्ध मन आप श्री मालेरकोटला में विराजित थे। आपकी निर्बन्ध / स्वतंत्र ही बना रहा। इतना ही नहीं आपनेअपनी। सेवा में श्री गैंडेराय जी म. श्री सोहनलाल जी म. आदि नवपरिणीता पत्नी के मन में भी वैराग्य का रंग भर मुनि थे। आपके ज्येष्ठ गुरु भ्राता श्री विलास राय जी म. दिया। परिणामतः आप दोनों- पति और पत्नी दीक्षित भी वहीं विराजित थे। साध्वी श्री पार्वती जी म. भी उन होने के लिए कृत्संकल्प बन गए। दिनों वहां पधारी हुई थीं। दिन के समय आप की सन्निधि आप अपनी पत्नी को साथ लेकर जयपुर नगर में में साधु-साध्वी वृन्द शास्त्र अध्ययन करते थे। वि.सं. विराजित शेरे पंजाब आचार्य श्री अमर सिंह जी महाराज १६३६, ज्येष्ठ शुक्ला नवमी के दिन शास्त्र स्वाध्याय चल के श्री चरणों में पहुंचे। आचार्य श्री ने आप दोनों के मन रहा था। आप श्री रुग्णता तथा वृद्धावस्था के कारण को पढ़ा और वि.सं. १६०८ को आपको जिन दीक्षा का पाट पर लेटे हुए ही स्वाध्याय करा रहे थे। सहसा श्री महामंत्र प्रदान कर दिया। पार्वतीजी म. की दृष्टि आपके पैरों के नाखुनों पर पड़ी दीक्षित होने के बाद आप श्री आगम-स्वाध्याय और नाखुन काले पड़ चुके थे। साध्वी जी ने उस विषय में गुरु सेवा में तल्लीन हो गए। कुछ ही वर्षों में आप एक आपसे चर्चा की। आगमवेत्ता मुनि के रूप में मुनिसंघ में प्रतिष्ठित हो गए। आप तत्क्षण बैठ गए। आपने अल्प समय में ही मुनिसंघ ने आपको ‘पंडित' पद से उद्बोधित कर अपनी अपनी, आवश्यक शारीरिक क्रियाएं की और श्री विलासराय श्रद्धा आपको अर्पित की। जी महाराज से प्रार्थना की कि वे आपको संथारा करवा आचार्य प्रवर श्री अमर सिंह जी म. के देवलोक के दें। श्री विलास राय जी म. ने आपको समझाने का यत्न पश्चात् चतुर्विध श्री संघ की दृष्टि आप श्री पर केन्द्रित हो करते हुए कहा कि उचित अवसर पर वे उन्हें संथारा करा गई। फलतः वि.सं. १६३६, ज्येष्ठ कृष्णा तृतीया के दिन देंगे। मालेरकोटला (पंजाब) नगर में चतुर्विध संघ ने आपको ज्येष्ठ गुरु भ्राता के वचन आपको आश्वस्त न कर अपना आचार्य मनोनीत किया। सके। आपने उसी समय स्वयं संथारा ग्रहण कर लिया। नियति ने अपनी अदृश्यलीला दिखाई। आचार्य यह दिन के चतुर्थ प्रहर की बात है, और रात्री के चतुर्थ पदारोहण के मात्र इक्कीस दिन बाद ही आपका स्वर्गवास प्रहर में ही आप महाप्रयाण कर गए। हो गया। वि.सं. १६३६, ज्येष्ठ शुक्ला ६ को आपने । एक संस्मरण : स्वर्गारोहण किया। ___ आप फिरोजपुर शहर में विराजित थे। आपके सान्निध्य यह सत्य है कि महापुरुषों का महाप्रयाण कभी में श्री गैंडेराय जी की दीक्षा हुई। श्री गैंडेराय जी जाति पंजाब श्रमणसंघ की आचार्य परम्परा २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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