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श्रमण परंपरा का इतिहास
वैराग्य रस से भीगा मन लिए आप अमृतसर से दिल्ली के लिए प्रस्थित हुए। मार्ग में सुनाम नगर में रुके। वहां दो मुमुक्षुओं - श्री रामरत्न जी और श्री जयंतिदास जी से आपकी भेंट हुई। आपके वैराग्य से उक्त दोनों पुण्यात्माएं भी विरक्त बन गईं। इस प्रकार आप तीनों मुमुक्षु दिल्ली में विराजित पंडित श्री रामलाल जी म. के श्री चरणों में पहुंचे। एक साथ तीन मुमुक्षुओं को पा कर पूज्य पंडित जी महाराज अति प्रसन्न हुए। आपके सच्चे वैराग्य को देखते हुए पूज्य श्री ने वि.सं. १८६८ की वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन आप तीनों को दीक्षा मंत्र प्रदान कर दिया।
अमरसिंह से आप मुनि श्री अमरसिंह जी बन गए। उस समय आपकी आयु ३६ वर्ष थी। उस वर्ष का वर्षावास आपने गुरुचरणों में रहते हुए दिल्ली चांदनी चौक में ही किया। पूज्य पंडित जी महाराज ने स्वल्प समय में ही आपको बत्तीस आगमों के मर्म का अमृतपान कराया।
पूज्यवर्य पंडित श्री रामलाल जी म. का स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा। आप गुरु सेवा में निमग्न हो गए। कुछ ही समय बाद पूज्य श्री समाधिमरण को उपलब्ध हो गए। आपके लिए यह एक और अनभ्र वज्रपात था। पर आप विचलित नहीं हुए। अध्ययन और साधना में आप गहरे से गहरे पैठते चले गए। आपकी ज्ञानपिपासा अद्भुत थी। आपने विज्ञ थावकों और अन्य सम्प्रदायों के मुनियों से भी ज्ञान प्राप्ति में कभी संकोच नहीं किया। परिणामतः कुछ ही वर्षों में आप लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् मुनिराज बनकर पंजाव मुनि संघ के क्षितिज पर देदिप्यमान सूर्य बनकर प्रगट हुए।
आपने उत्कृष्ट लगन और अटल निष्ठा से पंजाब श्री संघ का चहुंमुखी विकास किया। व्यर्थ विवादों में आपकी रुचि न थी। तत्कालीन मुनियों और गुरु भाइयों को
आपने अपने मधुर व्यवहार से एक सूत्र में पिरोया। उसी दौरान श्री मुश्ताकराय जी, श्री गुलाबराय जी, श्री विलासराय जी आदि आपके शिष्य बन चुके थे। आपका प्रभा-क्षेत्र अविराम विस्तृत होता जा रहा था। तत्कालीन मुनि संघ और श्रावक संघ आपको अपना अघोषित नेता मानने लगा था। _ वि.सं. १९१३ में आप दिल्ली चान्दनी चौक में पधारे। वहां पर आपका सम्मिलन पंडित मुनिराज स्वामी श्री कन्हीराम जी म. से हुआ। पूज्य पंडित जी म. आपके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने श्रीसंघ के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि श्री अमरसिंह जी महाराज को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जाए। इस प्रस्ताव से मुनि संघ तथा श्रावक संघ में हर्ष की लहर व्याप्त हो गई। अन्ततः वि.सं. १६१३ वैशाख कृष्णा द्वितीया की पावन वेला में चतुर्विध श्रीसंघ ने समवेत स्वर से आपको पंजाब मुनि सम्प्रदाय का आचार्य मनोनीत किया। आचार्य पद की प्रतीक चादर पंडित श्री कन्हीराम जी म. ने आपको प्रदान की। तेरह वर्षों के पश्चात् अर्थात् पूज्य पंडित श्री रामलाल जी म. के पश्चात् इस रिक्त स्थान की पूर्ति हुई।
इस समय आपके साघु-साध्वी परिवार की संख्या लगभग छत्तीस थी। आपका पुण्य प्रभाव इस गति से विस्तारित हुआ कि पंजाब सम्प्रदाय का मुनिसंघ आपके नाम से जाना जाने लगा। इससे एक भ्रांति अवश्य (बाद के वर्षों में) बन गई। कई लेखकों ने आपको ही पंजाब मुनि परम्परा का आद्य आचार्य मान लिया। ऐसा आपके दिग्दिगान्त व्यापी धवल यश के कारण तथा लेखकों की अन्वेषण अरुचि के कारण भी हुआ। जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि पंजाब मुनिसंघ के आय आचार्य श्री हरिदास जी महाराज थे।
आप श्री चहुंमुखी प्रतिभा के धनी महामुनि थे। आपका जीवन संयमगुण के साथ तपश्चरण, प्रवचन,
पंजाब श्रमणसंघ की आचार्य परम्परा
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